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डिजिटल युग का सबसे बड़ा नुकसान: बचपन की चोरी*, *तकनीक युग के चकाचौंध में खोती मासूमियत की करुण कहानी*

राकेश अग्रवाल संवाददाता
सवाई माधोपुर 7 अक्टूबर। कभी गांव की गलियों में धूल उड़ाते बच्चे, स्कूल से लौटकर पतंग उड़ाने, लट्टू घुमाने और कंचे खेलने दौड़ते थे। उनकी दुनिया रंगों, मिट्टी और मासूम हंसी से सजी होती थी। आज वही गलियां सूनी हैं। खेल के मैदानों की जगह मोबाइल की स्क्रीन ने ले ली है। यह परिवर्तन केवल तकनीकी नहीं, सामाजिक और भावनात्मक पतन की कहानी है।
**बदलती दुनिया और सिकुड़ता बचपन* 21वीं सदी ने तकनीक को जीवन का अभिन्न हिस्सा बना दिया है। मोबाइल फोन ने दुनिया को मुट्ठी में ला दिया, पर इसी मुट्ठी में बचपन भी कैद हो गया। जो हथेलियां कभी मिट्टी में खेलती थीं, अब स्क्रीन पर स्वाइप करती हैं। जो आंखें कभी आसमान में पतंग ढूंढती थीं, अब यू-ट्यूब पर कार्टून तलाशती हैं। तकनीक सुविधा देती है, लेकिन जब वही सुविधा आदत बन जाए तो खतरे की घंटी बज उठती है। वर्तमान समय के बच्चे दोस्तों के साथ नहीं, बल्कि मोबाइल ऐप्स के साथ खेलते हैं। गेम खेलना अब खुले मैदानों में नहीं, बल्कि बंद कमरों में नीली रोशनी के नीचे होता है।
*माता-पिता की सुविधा, बच्चों की लाचारी* अभिभावक अपनी व्यस्तता या काम के दबाव में अक्सर बच्चों को शांत रखने के लिए मोबाइल थमा देते हैं। यह एक ‘डिजिटल लोरी’ बन गई है जो बच्चे को चुप तो रखती है, पर उसका बचपन धीरे-धीरे सोख लेती है। बच्चे अब खेलों में नहीं, बल्कि स्क्रीन टाइम में व्यस्त हैं। माता-पिता सोचते हैं कि बच्चा सुरक्षित है, घर में है पर सच यह है कि वह एक अदृश्य दुनिया में खो रहा है, जहां न दोस्त हैं, न असली हंसी।
*स्वास्थ्य, व्यवहार और सोच पर प्रभाव* मोबाइल की लत बच्चों के शरीर और दिमाग दोनों पर असर डाल रही है। आंखों की रोशनी घट रही है, नींद कम हो रही है, मस्तिष्क की एकाग्रता घट रही है, और सबसे खतरनाक सामाजिक व्यवहार समाप्त हो रहा है। अब बच्चे बातों से नही इमोजी से भावनाएं व्यक्त करते हैं। उन्हें असली दोस्त का अर्थ नहीं पता, क्योंकि उनके फ्रेंड लिस्ट में सैकड़ों नाम हैं पर कोई दिल का साथी नहीं।
*शिक्षा पर भी भारी पड़ता मोबाइल* ऑनलाइन क्लास के नाम पर बच्चे खेल और सोशल मीडिया में उलझ जाते हैं। पढ़ाई और मनोरंजन की सीमाएं मिट चुकी हैं। जहां मोबाइल को शिक्षा का साधन बनना था, वहीं यह आलस्य और ध्यान भटकाने का औजार बन गया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से विशेषज्ञों के अनुसार, मोबाइल की अधिकता से बच्चों में एकाकीपन, गुस्सा, चिड़चिड़ापन और आत्मकेंद्रित व्यवहार बढ़ रहा है। उनकी कल्पनाशक्ति सीमित हो रही है क्योंकि हर चीज उन्हें तैयार मिल रही है न उन्हें सोचने की जरूरत है, न खोजने की। जो बचपन कभी जिज्ञासा और सवालों से भरा था, वह अब स्क्रीन पर स्क्रॉल करने तक सिमट गया है।
बचपन लौटाना कठिन नहीं, बस संकल्प चाहिए। अभिभावक मोबाइल की जगह बच्चों को समय दें। परिवार के साथ खेलें, बात करें, किताबें पढ़ें। स्कूलों में खेल, कला और सामूहिक गतिविधियों को फिर जीवित करें। मोबाइल को जरूरत तक सीमित करें, आदत न बनने दें।
बचपन एक बार चला जाए, तो लौटकर नहीं आता। मोबाइल एक उपकरण है, लेकिन जीवन का विकल्प नहीं। हमें बच्चों को फिर से धूल में खेलना, बारिश में भीगना, किताबों में खो जाना और पेड़ पर झूला झूलना सिखाना होगा। वरना आने वाली पीढ़ी किताबों में “बचपन” का अर्थ ढूंढेगी और मोबाइल की स्क्रीन पर जीवन जिएगी। मोबाइल को दोष नहीं, पर नियंत्रण आवश्यक है। तकनीक हमें आगे ले जाए, पर बच्चों का बचपन पीछे न छोड़ दे क्योंकि अगर बचपन ही छिन गया, तो भविष्य किसके हाथ में रहेगा।
लेखक: किरोड़ी सांकड़ा
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