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विरोध की आवाज़ पर बुल्डोज़र: लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत

विरोध की आवाज़ पर बुल्डोज़र: लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत

नई दिल्ली।
देश की सियासत में विरोध की आवाज़ों को दबाने के लिए नया तरीका उभरकर सामने आया है। आंदोलन, धरना और प्रदर्शन जैसी लोकतांत्रिक परंपराओं को अब “दंगा” और “फसाद” करार दिया जा रहा है। बुल्डोज़र की राजनीति ने न सिर्फ अल्पसंख्यकों बल्कि हर नागरिक में डर का माहौल पैदा कर दिया है। विशेषज्ञों का कहना है कि यह रुझान अगर यूं ही जारी रहा तो लोकतंत्र का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा।


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लोकतांत्रिक परंपरा से दूरी

भारत का लोकतंत्र हमेशा से आंदोलनों और जनसंघर्षों की नींव पर खड़ा रहा है। स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आपातकाल विरोधी आंदोलन तक, सड़कों पर आवाज़ उठाना जनता का हक और ताक़त माना जाता रहा।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी तक ने कहा था कि “असहमति लोकतंत्र की आत्मा है।” लेकिन मौजूदा हालातों में असहमति को देशविरोधी ठहराया जा रहा है।


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बुल्डोज़र की राजनीति

उत्तर प्रदेश से शुरू हुई बुल्डोज़र की कार्रवाई अब राजनीतिक प्रतीक बन चुकी है। अवैध निर्माण हटाने के नाम पर बिना अदालत की प्रक्रिया, बिना सुनवाई – घरों और दुकानों पर बुल्डोज़र चलाना आम हो गया है।
मानवाधिकार कार्यकर्ता रोहिणी सेन कहती हैं, “यह कानून का शासन नहीं बल्कि सीधे सजा देने का तरीका है। न्यायपालिका को दरकिनार करना लोकतंत्र की सबसे बड़ी हार है।”


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जनता और मीडिया की भूमिका

पहले मीडिया जनता की आवाज़ बनकर आंदोलनों को जगह देता था। लेकिन आज ज़्यादातर मुख्यधारा मीडिया सत्ता की भाषा बोलता नज़र आता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय के एक छात्र नेता का कहना है, “जब कैमरे हमारी आवाज़ बंद कर दें, तो सत्ता को और खुला मैदान मिल जाता है।”


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विपक्ष की प्रतिक्रिया

कांग्रेस और वाम दलों ने बुल्डोज़र राजनीति को “संविधान की आत्मा पर हमला” बताया है। समाजवादी पार्टी नेता का कहना है, “आज मुसलमान निशाने पर हैं, कल यही बुल्डोज़र हर गरीब और हर असहमत नागरिक तक पहुंचेगा।”


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लोकतंत्र पर खतरा

विशेषज्ञों का मानना है कि अगर जनता चुप रही तो आने वाले वर्षों में भारत में विरोध का अधिकार सिर्फ़ किताबों तक रह जाएगा।
वरिष्ठ समाजशास्त्री डॉ. अनवर अली का कहना है, “लोकतंत्र में सरकार जनता से बनती है, लेकिन अगर जनता सवाल पूछना छोड़ दे तो वही लोकतंत्र तानाशाही में बदल जाता है।”

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