
“हरी चादर में लिपटी राजनीति: जनता कब तक यह ढोंग सहेगी?”
भारतीय राजनीति का चरित्र आज किस हद तक गिर चुका है, इसका ताज़ा उदाहरण एक वरिष्ठ पूर्व मुख्यमंत्री की वह तस्वीर है, जिसमें वे मंच पर हरी चादर ओढ़े दिखाई दे रहे हैं। यह वही चादर है जिसे अब तक हम मज़ारों पर चढ़ते हुए देखते आए थे, पर पहली बार किसी जीवित नेता के कंधे पर डाली गई। सवाल यह नहीं कि चादर डाली गई, बल्कि सवाल यह है कि आस्था के प्रतीकों को इस तरह राजनीतिक बाजार में क्यों उतारा जा रहा है?
क्या सत्ता की कुर्सी इतनी प्यारी हो गई है कि नेता अब यह तक भूल बैठे हैं कि कौन-सा प्रतीक कहाँ उचित है? कभी टोपी पहन लो, कभी हरी चादर ओढ़ लो — क्या यही धर्मनिरपेक्षता है या फिर वोट बैंक को खुश करने का ठेका? जिस समाज के एक मौलाना ने उनकी पत्नी पर अमर्यादित टिप्पणी की थी, उसी समाज से यह सम्मान स्वीकार करना आखिर किस मजबूरी का सबूत है?
हकीकत यही है कि यह सब “चुनावी दिखावा” है, इंसानियत नहीं। ऐसे लोग न हिंदुओं के हो सकते हैं, न मुसलमानों के और न ही अपने समाज के। इनके रगों में सिर्फ़ छलावा और अवसरवाद बहता है। राजनीति का मतलब अगर केवल धर्म के प्रतीकों से खेलना है तो जनता को यह समझना होगा कि असली विकास, ईमानदारी और इंसानियत का कोई स्थान इन नेताओं की किताब में नहीं बचा है।
देश को ज़रूरत है इंसानों की, न कि ऐसे नेताओं की जो धर्म और आस्था को रंग-बिरंगे कपड़ों में बेचकर सत्ता हासिल करना चाहते हैं।
महेश प्रसाद मिश्रा भोपाल----