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शिक्षा का बाज़ारवाद और माफिया तंत्र : भविष्य की हत्या का खेल-:

भारत वह भूमि है जिसने “सर्वे भवन्तु सुखिनः” का मंत्र दिया, जिसने तक्षशिला और नालंदा जैसी विश्वविख्यात विश्वविद्यालयों की परंपरा बनाई। यहाँ शिक्षा कभी “धन कमाने का साधन” नहीं, बल्कि “धर्म और कर्तव्य” मानी जाती थी। परन्तु आज वही शिक्षा पूंजीपतियों और माफियाओं का व्यापार बन चुकी है।
स्कूल माफिया – लूट का संगठित कारोबार-: निजी स्कूलों का जाल इतना फैला हुआ है कि अभिभावक मजबूरी में इनके शर्तों के गुलाम बन गए हैं।
हर साल मनमाने ढंग से फीस बढ़ाना,
किताबें, यूनिफॉर्म, बैग और यहाँ तक कि जूते तक ‘अपनी तय दुकान’ से बिकवाना,
एडमिशन के नाम पर डोनेशन की खुलेआम मांग,
यह सब मिलकर स्कूलों को एक “शिक्षा उद्योग” बना चुके हैं। गरीब और मध्यमवर्गीय परिवार अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए कर्ज़ तक लेने को मजबूर हैं। दुर्भाग्य यह है कि शिक्षा विभाग और सरकार सब जानते हुए भी आँखे मूँदे बैठे रहते हैं।
कोचिंग माफिया – सपनों की कब्रगाह
कभी “अतिरिक्त सहायता” देने के नाम पर शुरू हुई कोचिंग आज एक हजारों करोड़ की इंडस्ट्री बन चुकी है।
छोटे शहरों से लेकर महानगरों तक “कोचिंग फैक्ट्रियां” खड़ी हो गई हैं।
यहाँ बच्चों को मशीन की तरह पढ़ाया जाता है, उनकी व्यक्तिगत ज़रूरतें और मानसिक स्वास्थ्य कोई मायने नहीं रखते।
फीस इतनी ऊँची कि गरीब परिवार का बच्चा प्रवेश द्वार पर ही हार मान लेता है।
आज हालत यह है कि लाखों छात्र अपने सपनों को लेकर इन कोचिंग सेंटरों में फंसते हैं, और असफलता, दबाव तथा अवसाद में डूबकर आत्महत्या तक कर लेते हैं। क्या यह शिक्षा है या मौत का सौदा?
सरकार और व्यवस्था की नाकामी-: सवाल है कि आखिर इस अंधेरगर्दी को कौन पनपने दे रहा है? जवाब साफ़ है—सरकार और तंत्र की मिलीभगत।
सरकारी स्कूलों में शिक्षक नहीं,
कॉलेजों में बुनियादी ढांचा नहीं,
रिसर्च के लिए वातावरण नहीं,
इस खालीपन को भरने के नाम पर निजी संस्थान और कोचिंग माफिया काली कमाई कर रहे हैं। यह सब बिना सत्ता-तंत्र की सरपरस्ती के संभव ही नहीं।
समाज पर असर-: इस शिक्षा के व्यवसायीकरण का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि—
शिक्षा अब “अधिकार” नहीं रही, बल्कि “माल” बन चुकी है।
गरीब और प्रतिभाशाली छात्र पीछे छूट जाते हैं।
समाज में गहरी असमानता पैदा हो रही है।
छात्र पढ़ाई से ज्यादा अंक और कोचिंग पर निर्भर हो गए हैं।
यानी शिक्षा, जो कभी चरित्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण का माध्यम थी, आज लालच, धोखाधड़ी और शोषण का अड्डा बन चुकी है।
क्या होना चाहिए?
1. शिक्षा को मुनाफाखोरी से मुक्त किया जाए।
2. स्कूल और कोचिंग की फीस पर सख़्त सरकारी नियंत्रण लगे।
3. सरकारी शिक्षा तंत्र को सशक्त और आकर्षक बनाया जाए।
4. शिक्षा को पूर्णतः जनसेवा और अधिकार के रूप में लागू किया जाए।
5. शिक्षा माफियाओं के खिलाफ कठोर दंड और निगरानी व्यवस्था बने।
निष्कर्ष-: आज सवाल सिर्फ इतना है कि—क्या शिक्षा आने वाली पीढ़ियों को उज्जवल भविष्य देगी, या माफियाओं के पंजे में फँसकर उनके सपनों का गला घोंट देगी?
शिक्षा को अगर “व्यापार” से मुक्त नहीं किया गया, तो भारत का भविष्य केवल किताबों में सुनहरे सपनों के रूप में ही रह जाएगा। हमें यह तय करना होगा कि शिक्षा मुनाफे की दुकान बनेगी या राष्ट्र निर्माण का आधार।

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