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परंपरा और सभ्यता का गौरव :: आहोम युग का हस्तशिल्प।

परंपरा और सभ्यता का गौरव :: आहोम युग का हस्तशिल्प।

- उमेश खंडेलिया,


असम की धरती सदैव से विविध जातीय समूहों और उनकी विशिष्ट संस्कृति की रंगभूमि रही है। आहोमों के आगमन से पूर्व यहाँ मोरान, मटक, मिसिंग, सोनवाल कछारी, बोडो आदि अनेक समुदायों ने अपने-अपने सांस्कृतिक वैभव के साथ जीवन व्यतीत किया है। हर समुदाय की कला, परंपरा और जीवन शैली अलग थी, किंतु सभी में शिल्प और श्रम के प्रति गहरी आस्था दिखाई देती थी।

1228 ईस्वी में जब स्वर्गदेव सुकाफा स्वर्ण-जड़ित नौकाओं के सहारे ब्रह्मपुत्र की घाटी में उतरे, तो उन्होंने स्थानीय कछारी और बराही शासकों से मित्रता कर आहोम राज्य की नींव रखी। धीरे-धीरे आहोमों ने असमिया भाषा, संस्कृति और हिंदू धर्म को आत्मसात किया तथा इस भूभाग को "असम" नाम और अस्मिता प्रदान की।

आहोम काल में असम कृषि के साथ-साथ हस्तशिल्प कला में अत्यंत विकसित था। उनके शिल्पकार्य में कला और उपयोगिता का अद्भुत संगम दिखाई देता है। बुनाई, लकड़ी की नक्काशी, बाँस-बेंत की कारीगरी, काँसा-पीतल के बर्तन, हाथीदाँत व धातु के अलंकार, मिट्टी के पात्र, लोहे के औज़ार—ये सब उस युग के जीवंत प्रमाण हैं।

स्वर्ण धागों की परंपरा इसी काल में विकसित व प्रसारित हुई
आहोम राजाओं ने वस्त्र निर्माण को विशेष महत्व दिया। कहा जाता है कि स्वर्गदेव सुचेंगफाई ने वर्तमान के सुवालकुचि में 'तांती' ( बुनकरों) को बसाया, जिसे आज "असम का मँचेस्टर" कहा जाता है। राजपरिवार रेशमी वस्त्र—पाट, मुगा और मेजांकरी—पहनता था, जबकि सामान्य जनता सूती वस्त्रों का प्रयोग करती थी। प्राकृतिक रंगों से रँगे ये वस्त्र केवल परिधान नहीं, बल्कि संस्कृति का प्रतीक थे। आज यही मुंगा रेशमी वस्त्र असमिया संस्कृति की वर्णाढ्य पहचान बन चुकें है। ना केवल भारत वरन विश्व भर में असमिया मुंगा वस्त्र की मांग लगातार बढती जा रही है।

लकड़ी और बाँस की कला असमिया समाज जीवन का एक अन्यतम आधार है।
असम की भूमि सदा से ही वन-संपदा से परिपूर्ण रही है। यही कारण है कि आहोम शासनकाल के समय लकड़ी और बाँस-बेंत की कला अत्यंत विकसित हुई। राजमहल, पूजा-स्थल, सिंहासन, पीढ़ा, शवपेटीका यहाँ तक कि युद्धपोत भी लकड़ी से बनाए जाते थे। सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक "डोला" (पालकी) विविध रूपों में—कंकड़ा डोला, गाभक डोला, खाटला डोला आदि उपयोग में आते थे।

आहोम काल की स्वर्ण और रजत कारीगरी आज भी विस्मयकारी है। सोनारी (स्वर्णकार) कारीगरों ने मुठ्ठी खारु, गामखारु, पटीया, बाला, जूनबिरी, दुगदुगी आदि अनगिनत आभूषणों की रचना की। ब्रह्मपुत्र, सुवर्णश्री और उसकी सहायक नदियों से सोना निकालने वाले "सोनोवाल पाइक" की ख्याति दूर-दूर तक थी। काँसा-पीतल के बर्तन, युद्ध के शस्त्र, कृषि उपकरण आदि उस युग की आत्मनिर्भरता की कहानी बयान करते हैं।

आहोम जनगोष्ठी ने शिल्प को केवल आजीविका नहीं, बल्कि सम्मान का भी दर्जा दिया। राज्य में "खनिकर बरुआ" जैसे अधिकारी हस्तशिल्प की देखरेख करते थे। लोहार, कुम्हार, सोनारी, कहाँर—ये सब केवल पेशेवर कारीगर नहीं, बल्कि असमिया संस्कृति के वाहक रहें हैं।

आज ग्लोबलाइजेशन की आँधी में हस्तशिल्प की वही प्रतिष्ठा नहीं रही, जो आहोम युग में थी। प्राचीन शिल्प और धरोहर के प्रति लोगों की उदासीनता बढ़ती जा रही है। यह हमारी संस्कृति के लिए एक गंभीर संकट है। किंतु सुखद है कि अब भी कुछ सजग और संस्कृति मन के लोग इस विरासत को सहेजने का प्रयास कर रहे हैं। राज्य के बाहर असमिया पुरातन व दुष्प्राप्य विरासत के प्रति आकर्षण / रुझान बढाने के प्रयास सफल साबित हो रहें हैं।

सरकार और पुरातत्व विभाग का दायित्व है कि इन परंपरागत कलाओं को संरक्षित करें और नई पीढ़ी को इनका महत्व समझाएँ। क्योंकि यही धरोहर हमारी अस्मिता की जड़ें हैं। डॉ. भूपेन हजारिका ने भी कहा था—

"सांची पात भाषा देगा,
चीफुंग आशा देगा,
रंग घर खोलेगा द्वार ।"

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