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भारत किधर जा रहा है!

आज की जनता जनार्दन विधानसभा और लोकसभा ‌के हर नेताओं का वक्तव्य क्रियाकलापों को घर बैठे देख रही है। जिस तरह के आहार व्यवहार एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के अलावा असंवैधानिक शब्द का व्यवहार सूनने को मिलता है।इस पर हर भारतीय को चिंतन मनन करनी चाहिए। भाषन फिल्मी डायलॉग विचार की प्रस्तुति से ही देश की मर्यादा का आकलन लगाने वाले लगाते होंगे। गांव घर में जिस तरह‌ से एक परिवार की महिला दूसरी परिवार की महिला से झगरने के क्रम में राड़ि बेटखौकी करती है। उससे भी बड़ी गालियां का इस्तेमाल नेता करते हैं,चिंता जनक है।देश सुरक्षित रहेगा तब जनता सुरक्षित महसूस करेंगी। कोई नेता गाली का शब्दकोष समझता है। कोई जर्सी बछड़ा, तो कोई करोड़ का गर्लफ्रेंड। किसी संत ने तो हद ही पार कर महिला चरित्र पर कीचड़ फेंकने का काम किया। आजादी के समय में भी नेताओं में मत‌भिन्नता थी। उस समय में जो भी संवैधानिक अधिकार कर्तव्य संविधान में दिए।संविधान सभा के विद्वतजन नेता ने मिलकर अंगीकृत अधिनियमित और आत्मार्पित किए। उस समय में भी बाबा साहेब 22 प्रतिज्ञा लिए, मनुस्मृति उस समय में भी जलाई गई।उस समय में रामास्वामी नैयकर पेरियार, सावित्री बाई फुले ज्योति बा राय‌ फूले एवं फातिमा शेख की विचारधारा भी थी। किताब भी प्रकाशित हुआ लाख टिका टिप्पणी के बाद।लेकिन आज के जैसे गाली गलौज की चर्चा मुझे किसी किताब में पढ़ने को नहीं मिली। लेकिन आज एक दूसरे की खामियां खोज रहा है खूबियां नहीं। 79 वर्ष में संविधान का प्रस्तावना कितना अंश लागू हुआ? आज यदि दलित को दो वोट का अधिकार नहीं छिनता तो दलित पर इतनी उंगलियां नहीं उठती। दलित एम पी एम एल ए, दलित सीट से जाता है। अपने पद को बचाने के लिए दलित की आवाज नहीं उठाई जाती। वे बेचारे पदलोभी भी क्या करें। दलित वोट से नहीं सभी जाति के वोट से चयनित होते हैं। हिमायती दलित का ही क्यों करें। विकास हुआ काफी सुविधा भी देश में है।रोड सड़क बिजली यातायात की सुविधा भी। लेकिन गरीबी जो 65% जनता है उस सुख से उस गरीब को क्या फायदा। जो रोटी कपड़ा मकान और शिक्षा से बंचित है। आत्मचिंतन हर बुद्धिजीवी और नेता को करने की जरूरत है। कुर्सी से मानव अमर नहीं कर्म से अमर होते हैं। विनोबा भावे, मंडेला, अम्बेडकर साहेब गांधी भगत सिंह सुभाष चंद्र बोस,उधम सिंह निस्वार्थ सेवा किए। दुनिया जानती है। लेकिन कुछ लोगों को पदासीन तक ही जानते है। आनेवाले पीढ़ी भी नाम भूल जाते है। सभी प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति का नाम भी नहीं देश जानता।सभी मरते हैं। कोई कुछ लेकर नहीं जाता। कर्म लेकर जाता है। उसी को मानव जिन्दा रखता है। बौद्ध धम्म के विचार से अध्यादेश में सम्मानित होते हैं लेकिन बौद्ध को विचार से विलग रहते हैं।
जागेश्वर मोची मधुबनी संवाददाता।

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