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उत्तराखंड राज्य आंदोलन : शहादत, संघर्ष और कलम का अदृश्य योगदान

मसूरी गोलीकांड से रामपुर तिराहा तक, जेल यात्राओं से गाँव-गाँव तक और पत्रकारों के कलम-समर्थन तक – उत्तराखंड राज्य का संघर्ष इतिहास
उत्तराखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि – संघर्ष की ज़मीन तैयार होती है

By : Kedar Singh Chauhan 'Pravar'

उत्तराखंड आंदोलन केवल राजनीतिक मांगों का परिणाम नहीं था, बल्कि यह पहाड़ के लोगों की पीढ़ियों की पीड़ा का विस्फोट था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही पहाड़ के लोगों ने महसूस किया कि उनकी समस्याएँ—दूर-दराज़ के गाँवों में शिक्षा और स्वास्थ्य की कमी, बदहाल सड़कें, रोजगार के अवसरों का अभाव, पलायन की विवशता—किसी भी सरकार की प्राथमिकताओं में शामिल नहीं थीं।

1960 और 70 के दशक से ही क्षेत्रीय पहचान और विशेष राज्य की मांग उठनी शुरू हो गई थी। डॉ. डी. डी. पंत, इन्द्रमणि बडोनी, हेमवती नंदन बहुगुणा जैसे नेताओं ने अलग राज्य की ज़रूरत को राजनीतिक विमर्श में लाने का प्रयास किया। 1979 में ‘उत्तराखंड क्रांति दल’ (UKD) की स्थापना इसी पृष्ठभूमि का परिणाम थी।

1990 के दशक तक आते-आते यह मांग और व्यापक हो चुकी थी। मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद आरक्षण की व्यवस्था से उत्तराखंड क्षेत्र में व्यापक असंतोष फैल गया। पहाड़ी क्षेत्रों की जनसंख्या संरचना मैदानों से भिन्न थी। मंडल आयोग की सिफारिशें पहाड़ी समाज के लिए असमान और अनुपयुक्त लगने लगीं। यही असंतोष स्वतःस्फूर्त उत्तराखंड राज्य आंदोलन में बदल गया।

राज्य आन्दोलन की पृष्ठभूमि

1979 में कुमाऊँ विश्वविद्यालय का आन्दोलन हो, 1989 का नशा नहीं रोज़गार चाहिए का नारा, या फिर 1992-93 में शिक्षक, छात्र और कर्मचारी संगठनों की लामबंदी—इन सबने उत्तराखंड के जनमानस को तैयार किया था।

1994 आते-आते पर्वतीय क्षेत्रों में यह भावना गहरी हो गई कि अब अलग राज्य के बिना विकास संभव नहीं। आलाकमान (लखनऊ/दिल्ली) तक यह संदेश बार-बार भेजा जा रहा था कि गढ़वाल-कुमाऊँ की उपेक्षा अब और बर्दाश्त नहीं होगी।

इसी दौर में समाज के हर वर्ग—छात्र, शिक्षक, महिलाएँ, किसान, बेरोज़गार युवक, व्यापारी—सड़कों पर उतरने लगे। उत्तराखंड क्रांति दल (UKD), प्रगतिशील छात्र संगठन (PSO), महिला मंगल दल, जनजातीय संगठन, और क्षेत्रीय मोर्चे एकजुट होने लगे।

खटीमा: संघर्ष की ज्वाला का पहला विस्फोट

दिनांक: 1 सितम्बर 1994
स्थान: खटीमा (जिला उधम सिंह नगर, तत्कालीन नैनीताल)

उस दिन हजारों छात्र, युवा, किसान और महिलाएँ खटीमा में एकत्र हुए थे। उनका उद्देश्य था—शांतिपूर्ण जुलूस और सभा के माध्यम से पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग को मुखर करना।

प्रदर्शन में कोई हिंसा नहीं थी, यह पूर्णतः लोकतांत्रिक स्वरूप का था। लेकिन प्रशासन ने इस शांतिपूर्ण आन्दोलन को कुचलने का निर्णय लिया।

गोलीकांड का घटनाक्रम

खटीमा कस्बे में सुबह से ही आन्दोलनकारी एकत्रित होने लगे।

जुलूस शांतिपूर्ण ढंग से आगे बढ़ा। नारे गूंज रहे थे—“उत्तराखंड हमारी माँग नहीं, हमारी ज़रूरत है।”

प्रशासन ने अचानक लाठीचार्ज कर दिया।

स्थिति बिगड़ने से पहले ही पुलिस और पीएसी ने निर्दोष आन्दोलनकारियों पर गोलियाँ बरसा दीं।

शहीदों की बलिदान गाथा

इस गोलीकांड में कई आन्दोलनकारी शहीद हुए। प्रमुख शहीदों में शामिल हैं—

विजय सिंह

बचन सिंह

राजेन्द्र सिंह

प्रमोद तिवारी

लक्ष्मण सिंह

रमेश जोशी

भीम सिंह

(अलग-अलग स्थानीय स्रोतों में शहीदों की सूची कुछ भिन्न पाई जाती है, परंतु खटीमा गोलीकांड में सात से अधिक आन्दोलनकारियों की शहादत को स्मरण किया जाता है।)

इनमें अधिकांश युवा थे, जिनकी उम्र 18 से 30 वर्ष के बीच थी। वे कोई राजनीतिक पदाधिकारी नहीं, बल्कि आम जनता के बेटे थे।

गोलीकांड का प्रभाव और जनाक्रोश

खटीमा गोलीकांड ने पूरे उत्तराखंड को हिलाकर रख दिया।

गाँव-गाँव में मातम छा गया।

हर शहीद की अर्थी पर हजारों लोग उमड़े।

महिलाओं ने कंधा दिया, बच्चों ने आंसुओं से विदाई दी।

पूरे क्षेत्र में कर्फ्यू लगा, लेकिन आन्दोलन थमा नहीं, बल्कि और उग्र हो गया।

खटीमा गोलीकांड वास्तव में उत्तराखंड आन्दोलन का पहला निर्णायक विस्फोट था। यह वह चिंगारी थी, जिसने आने वाले हफ्तों में मसूरी और फिर रामपुर तिराहा जैसी घटनाओं को जन्म दिया।

तत्कालीन सरकार का रुख

उस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी।

उन्होंने आन्दोलनकारियों को “अराजक तत्व” करार दिया।

गोली चलाने वाले पुलिस अधिकारियों पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गई।

शहीदों के परिवारों को सांत्वना के नाम पर केवल औपचारिक बयान दिए गए।

लेकिन जनता ने सरकार के इस रुख को स्वीकार नहीं किया। अब यह केवल राजनीतिक मांग नहीं रह गई थी, बल्कि जन-आक्रोश का ज्वालामुखी बन चुका था।

पत्रकारिता और खटीमा गोलीकांड

दिलचस्प तथ्य यह है कि स्थानीय पत्रकारों ने ही इस गोलीकांड की सच्चाई पूरे प्रदेश तक पहुँचाई।

पुलिस और प्रशासन ने कोशिश की कि यह खबर दबा दी जाए।

राष्ट्रीय मीडिया ने शुरू में इसे “छोटा-सा उपद्रव” बताकर नज़रअंदाज़ किया।

लेकिन स्थानीय अखबारों—‘अमर उजाला’, ‘दैनिक जागरण’, ‘गढ़वाल पोस्ट’ और छोटे-छोटे क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाओं ने शहीदों की तस्वीरें और उनके पारिवारिक हालात प्रकाशित किए।

यही कारण था कि आन्दोलन की लपटें केवल खटीमा तक सीमित न रहकर पूरे उत्तराखंड में फैल गईं।

खटीमा की शहादत का महत्व

1 सितम्बर 1994 का दिन उत्तराखंड आन्दोलन का “शहीद दिवस” माना जाता है।

इस दिन ने साबित कर दिया कि पृथक राज्य की मांग अब केवल कागज़ पर नहीं, बल्कि खून से लिखी जाएगी।

यह शहादत आने वाले दिनों में हजारों युवाओं के लिए प्रेरणा बनी।

इसी के बाद मसूरी में अगले दिन (2 सितम्बर) शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुआ, जो एक और भीषण गोलीकांड में बदल गया।




खटीमा गोलीकांड केवल एक घटना नहीं थी, यह उत्तराखंड राज्य की नींव में गढ़े हुए पत्थरों जैसा है।

यह दर्शाता है कि जब लोकतांत्रिक आवाज़ों को सुना नहीं जाता, तो जनआक्रोश किस हद तक जा सकता है।

यह साबित करता है कि उत्तराखंड आन्दोलन महज कुछ संगठनों या नेताओं की महत्वाकांक्षा नहीं था, बल्कि आम जनता के खून और बलिदान से उपजा हुआ सत्य था।

आज जब हम उत्तराखंड राज्य की उपलब्धियों और चुनौतियों पर चर्चा करते हैं, तो खटीमा के उन शहीदों को नमन करना हमारी नैतिक जिम्मेदारी है।

✍️ मसूरी गोलीकांड (2 सितम्बर 1994)

उत्तराखंड राज्य आंदोलन का इतिहास जितना गौरवशाली है, उतना ही रक्तरंजित भी। खटीमा गोलीकांड (1 सितम्बर 1994) के तुरंत बाद मसूरी का हृदय विदारक कांड घटित हुआ जिसने पूरे आंदोलन को नई दिशा दी। यह केवल गोलीकांड नहीं था, बल्कि उत्तराखंड की जनभावनाओं पर, शांति और अहिंसक आंदोलन पर, तथा हमारी लोकतांत्रिक चेतना पर किया गया सीधा प्रहार था।

🔹 मसूरी का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

मसूरी, जिसे “पर्वतों की रानी” कहा जाता है, केवल एक पर्यटन नगरी नहीं थी। यह वह स्थान भी था जहाँ उत्तराखंड आंदोलनकारियों की आवाज़ कई बार गूँजी। 1994 में जब राज्य की माँग पूरे उत्तराखंड में जोर पकड़ रही थी, मसूरी में भी छात्र, महिलाएँ, व्यापारी, शिक्षक, बुजुर्ग और युवा—सब एक स्वर में अलग राज्य की माँग कर रहे थे।

1 सितम्बर 1994 को खटीमा में पुलिस गोलीकांड में सात निर्दोष आंदोलनकारी शहीद हुए। इसके विरोध में 2 सितम्बर को मसूरी के झूलाघर क्षेत्र में शांतिपूर्ण प्रदर्शन का आह्वान किया गया। यह विरोध काली पट्टियाँ बाँधकर, शांतिपूर्ण रैली निकालकर और नारे लगाकर अपनी बात कहने का माध्यम था।

🔹 शांतिपूर्ण प्रदर्शन और अचानक हमला

प्रदर्शनकारी पूरी तरह से शांतिपूर्ण थे। महिलाओं और बच्चों तक ने भाग लिया था। लेकिन जैसे ही जुलूस झूलाघर से आगे बढ़ा, अचानक Gunhill की ओर से पत्थरबाजी शुरू हो गई। यह स्थिति प्रशासन की ओर से पैदा की गई या किसी “साज़िश” के तहत हुई, इस पर आज भी सवाल उठते हैं।

पत्थर लगने से भीड़ में अफरा-तफरी मच गई। इसी बीच, PAC और पुलिस ने अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। अहिंसक आंदोलनकारियों को तितर-बितर करने की बजाय सीधे निशाना बनाकर गोलियाँ चलाई गईं।

🔹 शहीदों की सूची

मसूरी गोलीकांड में कई लोग शहीद हुए। प्रमुख नाम इस प्रकार हैं—

बेलमती चौहान – खलोन, टिहरी

हंसा धनाई – बंगधार, टिहरी

बलबीर सिंह नेगी – मसूरी

धनपत सिंह – गंगवाड़, पौड़ी

मदन मोहन ममगाईं – नागजली, मसूरी

राय सिंह बंगारी – तुनेटा भरदार, रुद्रप्रयाग

इसके अतिरिक्त, उस दिन DSP उमाकांत त्रिपाठी को भी गोली लगी और अस्पताल में उनका निधन हो गया।

यह घटना आंदोलन की त्रासदी को और गहरा कर गई क्योंकि इसमें पुलिस अधिकारी और आंदोलनकारी दोनों की बलि चढ़ी।

🔹 शहर में दहशत और कर्फ्यू

गोलीबारी के बाद मसूरी का शांत वातावरण अचानक दहशत में बदल गया।

लोग इधर-उधर भागने लगे।

बाजारों में भगदड़ मच गई।

प्रशासन ने पूरे क्षेत्र में कर्फ्यू लागू कर दिया, जो लगभग दो सप्ताह तक चला।

आंदोलनकारियों को बड़ी संख्या में गिरफ्तार कर बरेली सेंट्रल जेल भेजा गया।

🔹 तत्कालीन पत्रकारों की भूमिका

यहाँ एक महत्वपूर्ण पहलू सामने आता है—पत्रकारिता की भूमिका।

मसूरी गोलीकांड की खबरें अगर ईमानदारी से जनता तक न पहुँचतीं, तो आंदोलन कभी व्यापक न बनता। तत्कालीन पत्रकारों ने अपनी जान जोखिम में डालकर घटनाओं को कवर किया।

वे गोलीबारी के बीच घटनास्थल पर मौजूद रहे।

उन्होंने तस्वीरें खींचीं, प्रत्यक्षदर्शियों के बयान दर्ज किए।

स्थानीय और राष्ट्रीय अखबारों में मसूरी कांड को प्रमुखता दी गई।

लेकिन दुख की बात यह है कि राज्य बनने के बाद पत्रकारों को राज्य आंदोलनकारी का दर्जा नहीं दिया गया। जबकि सच्चाई यह है कि आंदोलन की धार और जनमानस तक उसकी पहुँच उन्हीं पत्रकारों की वजह से संभव हुई। यदि मीडिया चुप रहता तो सरकार इन घटनाओं को आसानी से दबा सकती थी।

इसलिए आज यह मांग उठाना न्यायसंगत है कि—
👉 आंदोलन को धार देने वाले पत्रकारों को भी राज्य आंदोलनकारी का दर्जा दिया जाए।

🔹 आंदोलन पर प्रभाव

मसूरी गोलीकांड ने उत्तराखंड आंदोलन को निर्णायक मोड़ दिया।

यह स्पष्ट हो गया कि सरकार आंदोलन को बलपूर्वक दबाना चाहती है।

आम जनता का गुस्सा और बढ़ गया।

हर जिले और गाँव में विरोध की लहर फैल गई।

मसूरी की घटना ने आंदोलन को और जन-सामान्य का आंदोलन बना दिया। महिलाएँ, बुजुर्ग और यहाँ तक कि बच्चे भी अब खुलकर सड़क पर उतरने लगे।

🔹 आज की पीढ़ी और मसूरी कांड की स्मृति

आज नई पीढ़ी को मसूरी गोलीकांड की पूरी जानकारी नहीं है।

स्कूल-कॉलेजों की किताबों में इसका जिक्र बहुत संक्षिप्त है।

शासन-प्रशासन ने शहीदों की स्मृतियों को सहेजने में अपेक्षित ईमानदारी नहीं दिखाई।

राजनीतिक दलों ने इस त्रासदी को केवल “चुनावी मुद्दा” बनाकर छोड़ दिया।

लेकिन मसूरी गोलीकांड हमें यह सिखाता है कि जनांदोलन केवल नारों से नहीं बनते—उनमें बलिदान और सत्य की गूंज होती है।

मसूरी गोलीकांड उत्तराखंड राज्य आंदोलन का दूसरा बड़ा गोलीकांड था।

इसने खटीमा की त्रासदी को और गहरा कर दिया।

राज्य की माँग को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।

यह लोकतांत्रिक चेतना की उस यात्रा का हिस्सा था, जिसने अंततः 9 नवम्बर 2000 को उत्तराखंड राज्य के गठन का मार्ग प्रशस्त किया।

मसूरी के शहीदों का बलिदान केवल इतिहास नहीं, बल्कि हमारी चेतना की आवाज़ है।
उन्हें नमन करना और उनके सपनों का उत्तराखंड बनाना ही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

✍️ मुजफ्फरनगर रामपुर तिराहा कांड (2 अक्टूबर 1994) – आंदोलन का निर्णायक और सबसे भीषण मोड़

उत्तराखंड राज्य आंदोलन का इतिहास जब भी लिखा जाएगा, 2 अक्टूबर 1994 को हुए मुजफ्फरनगर रामपुर तिराहा कांड को उसका सबसे भीषण, अमानवीय और निर्णायक मोड़ माना जाएगा। यह केवल एक गोलीकांड नहीं था, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को छलनी करने वाली त्रासदी थी, जिसमें आंदोलनकारियों को न केवल गोलियों से भून दिया गया, बल्कि महिलाओं की अस्मिता को तार-तार किया गया और उत्तराखंड के सपनों को कुचलने की कोशिश की गई।

🔴 पृष्ठभूमि: दिल्ली कूच का आह्वान

मसूरी गोलीकांड (2 सितम्बर 1994) और खटीमा गोलीकांड (1 सितम्बर 1994) के बाद उत्तराखंड का जनमानस आग की तरह भड़क चुका था। पूरे पहाड़ में चप्पे-चप्पे से आवाज उठ रही थी कि अब आंदोलन को दिल्ली ले जाना होगा।

2 अक्टूबर, गांधी जयंती के दिन, दिल्ली कूच का आह्वान हुआ।

हजारों की संख्या में आंदोलनकारी ट्रक, बस, जीप और पैदल ही दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे।

दिल्ली पहुंचकर ‘राजघाट’ पर गांधी समाधि के सामने शांतिपूर्ण सत्याग्रह का कार्यक्रम तय था।

लेकिन उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार (मुलायम सिंह यादव) और प्रशासन ने आंदोलनकारियों को दिल्ली पहुंचने से पहले ही रोकने की साजिश रच डाली।

🔴 रामपुर तिराहा पर नरसंहार की रात

1 अक्टूबर की रात से ही पुलिस ने मुजफ्फरनगर के रामपुर तिराहा पर नाकेबंदी कर दी।
2 अक्टूबर की सुबह जब उत्तराखंड आंदोलनकारी वहां पहुंचे तो पुलिस और PAC ने बेरहमी से लाठीचार्ज, आंसू गैस और अंततः अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी।

अचानक गोलियों की बौछार – आंदोलनकारियों के पास न कोई हथियार थे, न कोई हिंसा का इरादा। वे सिर्फ गांधी की समाधि पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करना चाहते थे।

मासूमों की बलि – इस गोलीकांड में आधिकारिक तौर पर 7 लोग शहीद बताए गए, लेकिन असल संख्या इससे कहीं अधिक थी।

महिलाओं की अस्मिता पर हमला – कई महिला आंदोलनकारियों के साथ अभद्रता, छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी घटनाएँ हुईं। यह त्रासदी उत्तराखंड के इतिहास पर अमिट कलंक बन गई।

🔴 शहीदों की सूची

रामपुर तिराहा में जिन वीर आंदोलनकारियों ने अपनी जान न्योछावर की, उनमें प्रमुख थे:

सत्यवती (उत्तरकाशी)

प्रेमदत्त भट्ट (गढ़वाल)

गोविंद बल्लभ पंत (अल्मोड़ा)

अन्य अज्ञात आंदोलनकारी, जिनके नाम सरकारी अभिलेखों से धुंधले कर दिए गए।

(यह सूची अधूरी है क्योंकि कई शहीदों के नाम प्रशासन ने दबा दिए।)

🔴 पत्रकारों की भूमिका: मौन या मुखर?

रामपुर तिराहा कांड की सबसे दुखद पहलुओं में से एक यह था कि तत्कालीन बड़े अखबारों और पत्रकारों ने इस घटना को वह राष्ट्रीय मंच नहीं दिया, जो मिलना चाहिए था।

कुछ क्षेत्रीय पत्रकारों ने साहस दिखाकर सच्चाई लिखी,

लेकिन बड़े मीडिया हाउस और राष्ट्रीय अखबारों ने सरकार के दबाव में या तो समाचारों को छोटा करके छापा या फिर पूरी तरह से नजरअंदाज किया।

👉 यह वह दौर था जब पत्रकारिता के कई कर्तव्यनिष्ठ लोग भी आंदोलनकारी की तरह जेलों में डाले गए, और बाद में भी उन्हें कभी राज्य आंदोलनकारी का दर्जा नहीं दिया गया।

वास्तव में यदि स्थानीय पत्रकारों ने अपने प्राणों की बाज़ी लगाकर समाचार, फोटो और घटनाओं की सच्चाई प्रसारित न की होती तो देश उत्तराखंड आंदोलन की क्रूरता से अनजान रह जाता।

इसलिए इतिहास में यह स्पष्ट दर्ज होना चाहिए कि –
पत्रकार भी आंदोलनकारियों के साथ शहीदों की कतार में खड़े हैं, और उन्हें भी ‘राज्य आंदोलनकारी’ का दर्जा मिलना चाहिए।

🔴 परिणाम और असर

रामपुर तिराहा कांड ने आंदोलन को निर्णायक बना दिया।

पूरे पहाड़ में जब खबर पहुंची कि आंदोलनकारियों को गोलियों से छलनी कर दिया गया और महिलाओं का अपमान हुआ है, तो लोग सड़कों पर उतर पड़े।

यह कांड उत्तराखंड आंदोलन को जन-जन का आंदोलन बना गया।

दिल्ली, लखनऊ, देहरादून, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, श्रीनगर, टिहरी – हर जगह इसका प्रतिरोध हुआ।

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सरकार की निंदा हुई।

👉 रामपुर तिराहा कांड के बाद उत्तराखंड राज्य की मांग अब और रोकी नहीं जा सकती थी।

🔴 न्याय की लड़ाई

इस घटना की जांच CBI को सौंपी गई।

कई PAC जवानों और अधिकारियों पर आरोप तय हुए, लेकिन दशकों बाद भी न्याय अधूरा ही रहा।

शहीदों के परिवार आज भी न्याय और सम्मान की प्रतीक्षा में हैं।

रामपुर तिराहा कांड उत्तराखंड राज्य आंदोलन का सबसे भीषण और निर्णायक मोड़ था।

इसने सरकार की बर्बरता को बेनकाब किया,

आंदोलनकारियों के संकल्प को और मजबूत किया,

और आने वाले वर्षों में राज्य निर्माण की राह प्रशस्त की।

लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि –
👉 पत्रकारों और स्थानीय संवाददाताओं ने जिस साहस से इस कांड की सच्चाई जनता तक पहुंचाई, उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
👉 राज्य आंदोलनकारियों के साथ-साथ पत्रकारों को भी मान्यता और सम्मान मिलना चाहिए।

आंदोलन की व्यापकता – जेल यात्राएँ, गाँव-गाँव का संघर्ष, महिलाओं और छात्रों की भागीदारी

उत्तराखंड राज्य आंदोलन केवल मसूरी और रामपुर तिराहा जैसे प्रमुख घटनास्थलों तक सीमित नहीं था। यह आंदोलन गाँव-गाँव, गली-मोहल्लों, कस्बों और शहरों के हर कोने में धधक रही चिंगारियों का संगम था। जिस तरह एक नदी छोटी-छोटी धाराओं से मिलकर विशाल प्रवाह का रूप लेती है, उसी तरह उत्तराखंड राज्य आंदोलन भी गाँव-गाँव के छोटे-छोटे प्रतिरोध, धरनों और संघर्षों से सशक्त हुआ।

1. जेल यात्राएँ – आंदोलनकारियों की प्रतिरोध गाथा

आंदोलन के दौरान सैकड़ों, बल्कि हजारों आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया और विभिन्न जेलों में भेजा गया।

बरेली सेंट्रल जेल, रुड़की जेल, हरिद्वार जेल, नैनीताल जेल, गढ़वाल की उपजेलें – हर जगह उत्तराखंड के लोग ठूंस दिए गए थे।

जेल में आंदोलनकारियों ने भूख हड़ताल की, जनगीत गाए, और आंदोलन की रणनीति पर चर्चा की।

कई आंदोलनकारियों ने जेल को ही "संघर्ष की प्रयोगशाला" बना दिया।

विशेषकर 2 अक्टूबर 1994 के रामपुर तिराहा कांड के बाद हजारों लोगों को गिरफ्तार कर जेलों में भेजा गया।

जेल यात्राएँ केवल दमन की कहानियाँ नहीं थीं, बल्कि आंदोलन की ऊर्जा को और प्रखर करने का जरिया बनीं। जिन ग्रामीण महिलाओं या छात्रों ने पहले कभी जेल की शक्ल भी नहीं देखी थी, वे भी गर्व से जेल जाने लगे और कहते – “हम जेल जा रहे हैं, लेकिन अपने बच्चों के लिए भविष्य गढ़ने निकले हैं।”

2. गाँव-गाँव का संघर्ष

उत्तराखंड राज्य आंदोलन की सबसे बड़ी विशेषता थी कि यह किसी एक बड़े शहर तक सीमित नहीं रहा।

टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग, चमोली, उत्तरकाशी, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत, अल्मोड़ा—इन पहाड़ी जनपदों के छोटे-छोटे गाँवों तक आंदोलन की लहर पहुँची।

ग्रामीण अपने खेत-खलिहान छोड़कर आंदोलन में जुटे।

गाँवों में ढोल-नगाड़ों के साथ जुलूस निकलते, रात में मशाल जुलूस निकाले जाते।

अनेक गाँवों ने सामूहिक रूप से प्रस्ताव पारित कर कहा – “हमें अलग उत्तराखंड राज्य चाहिए।”

यानी गाँव-गाँव में आंदोलन ने जनता को राजनीतिक चेतना दी। यही कारण है कि राज्य आंदोलन को "जनजन का आंदोलन" कहा जाता है।

3. महिलाओं की भागीदारी – उत्तराखंड आंदोलन की धड़कन

उत्तराखंड राज्य आंदोलन की सबसे विशेष और अद्वितीय पहचान थी महिलाओं की भागीदारी।

चिपको आंदोलन से लेकर शराबबंदी आंदोलनों तक महिलाओं ने उत्तराखंड को जागरूक किया था। वही चेतना राज्य आंदोलन में भी दिखी।

मसूरी, खटीमा, मुजफ्फरनगर जैसे भीषण दमन झेलने के बाद भी महिलाएँ पीछे नहीं हटीं।

गाँव की गृहिणियाँ अपने बच्चों को गोद में लेकर धरने में बैठीं।

महिलाओं ने रसोई आंदोलन चलाया – यानी आंदोलनकारियों को भोजन उपलब्ध कराना।

मसालों की थालियाँ, ढोल-दमाऊं, रणभेरी और लोकगीतों के माध्यम से आंदोलन की आत्मा को जीवित रखा।

महिलाएँ केवल सहभागी नहीं, बल्कि आंदोलन की रीढ़ थीं। बिना महिलाओं की शक्ति के यह आंदोलन अधूरा होता।

4. छात्रों की भागीदारी – युवा पीढ़ी की हुंकार

1994 का उत्तराखंड आंदोलन छात्रों और युवाओं के जोश के बिना संभव नहीं था।

गढ़वाल विश्वविद्यालय, कुमाऊँ विश्वविद्यालय, श्रीनगर, अल्मोड़ा, नैनीताल, टिहरी और देहरादून के कॉलेजों से छात्र लगातार आंदोलन में सक्रिय रहे।

छात्रसंघ चुनावों को भी आंदोलन की दिशा में मोड़ दिया गया।

“हम अलग राज्य लेंगे, करके रहेंगे” – यह नारा कॉलेज कैंपस से लेकर गाँव के चौपाल तक गूंजता था।

छात्र नेताओं ने जेल यात्राएँ कीं, लाठियाँ खाईं, गोली भी झेली।

5. सांस्कृतिक मोर्चा – लोकगीतों और कविताओं की भूमिका

आंदोलन में सांस्कृतिक चेतना की भी बड़ी भूमिका रही।

लोककवि और जनकवि अपनी कविताओं से जनमानस को आंदोलित करते रहे।

गीत गाए जाते – “उत्तराखंड हमारी माँग नहीं, यह हमारा अधिकार है।”

नाटकों, नुक्कड़ सभाओं और गीत-भजन ने आंदोलन को गहराई दी।

उत्तराखंड राज्य आंदोलन केवल गोलीकांडों और बड़े प्रदर्शनों का नाम नहीं था, बल्कि यह गाँव-गाँव में धधकती जनचेतना, महिलाओं की दृढ़ता, छात्रों के जोश और जेल यात्राओं से निकली सामूहिक चेतना का परिणाम था।

यह आंदोलन इसलिए सफल हुआ क्योंकि इसमें गाँव की गृहिणी से लेकर शहर का छात्र, मजदूर से लेकर शिक्षक, पत्रकार से लेकर सांस्कृतिक कार्यकर्ता—हर वर्ग ने अपनी भूमिका निभाई।

✍️ पत्रकारों की भूमिका और उनकी अनदेखी – राज्य आंदोलन को धार देने वाली कलम का संघर्ष

उत्तराखंड राज्य आंदोलन का इतिहास केवल खून और बलिदानों का इतिहास नहीं है, यह कलम और विचार की शक्ति का भी इतिहास है। यदि आंदोलनकारियों की आवाज़ गांव–गांव, शहर–शहर और अंततः राष्ट्रीय मंच तक पहुँची, तो उसमें सबसे महत्वपूर्ण योगदान तत्कालीन पत्रकारों का था।

✦ आंदोलन और पत्रकारिता का संगम

1994 का समय डिजिटल मीडिया या सोशल मीडिया का नहीं था। संचार का सबसे बड़ा साधन अख़बार, रेडियो और जनसभा ही थे। यही कारण था कि खटीमा, मसूरी और रामपुर तिराहा जैसी घटनाओं की खबरें जब अखबारों के पहले पन्ने पर छपीं, तब उत्तराखंड आंदोलन ने पूरे उत्तर भारत में जनमानस को झकझोरा।

मसूरी गोलीकांड (2 सितंबर 1994) की रिपोर्टिंग में स्थानीय पत्रकारों ने पुलिस बर्बरता को उजागर किया।

रामपुर तिराहा कांड (2 अक्टूबर 1994) के बाद पत्रकारों की कलम ने महिलाओं के साथ हुई दरिंदगी, आंदोलनकारियों की शहादत और शासन–प्रशासन की क्रूरता को देशभर के अखबारों तक पहुँचाया।

✦ पत्रकारों का संघर्ष भी आंदोलन का हिस्सा

पत्रकार केवल खबर लिखकर पीछे नहीं हटे। उन्होंने सड़क पर उतरकर आंदोलनकारियों की आवाज़ को दर्ज किया। कई पत्रकारों को धमकियाँ मिलीं, अखबारों पर दबाव डाले गए, लेकिन उन्होंने कलम नहीं रोकी। कुछ पत्रकारों को जेल भी जाना पड़ा।

स्थानीय अखबारों ने प्रतिदिन आंदोलन की रिपोर्टिंग की।

कई पत्रकारों ने आंदोलनकारियों के साथ थानों–जेलों में रातें बिताईं।

फोटो–पत्रकारों की खींची गई तस्वीरें आज भी आंदोलन की जीवित गवाही हैं।

✦ कलम का संघर्ष बनाम सत्ता की बेरुखी

दुःख की बात यह है कि राज्य बनने के बाद पत्रकारों की भूमिका को सम्मानित करने की जगह अनदेखा किया गया।

पत्रकारों को राज्य आंदोलनकारी का दर्जा नहीं दिया गया।

सत्ता ने उन्हें हाशिये पर रखा, जबकि बिना उनकी कलम के आंदोलन की गूँज लखनऊ और दिल्ली तक पहुँचना असंभव था।

कई पत्रकार, जो रामपुर तिराहा से लेकर देहरादून तक सड़कों पर आंदोलनकारियों के साथ थे, आज भी गुमनाम हैं।

✦ यदि पत्रकार न होते तो?

यदि तत्कालीन पत्रकारों ने आंदोलन को धार न दी होती, तो संभव है –

खटीमा गोलीकांड के बाद घटना दबा दी जाती,

मसूरी गोलीकांड को स्थानीय झड़प बताकर भुला दिया जाता,

रामपुर तिराहा की दरिंदगी देश की जनता तक कभी न पहुँचती।

यानी पत्रकारों की भूमिका ने ही उत्तराखंड आंदोलन को स्थानीय विरोध से निकालकर राष्ट्रीय मुद्दा बनाया।

✦ नई पीढ़ी और पत्रकारिता का कर्ज

आज की पीढ़ी सोशल मीडिया और डिजिटल मीडिया के दौर में आंदोलन की पुरानी खबरें पढ़कर चकित होती है। वह यह नहीं जानती कि उस समय प्रेस ही आंदोलन का सोशल मीडिया था। कलम ही ट्वीट थी, अखबार ही फेसबुक वॉल था और संवाददाता ही लाइव रिपोर्टर थे।

✦ मांग – पत्रकारों को राज्य आंदोलनकारी का दर्जा मिले

इतिहास के इस अन्याय को सुधारने की आवश्यकता है। पत्रकार केवल रिपोर्टर नहीं थे, वे आंदोलन के सिपाही थे।

उन्हें राज्य आंदोलनकारी का दर्जा मिलना चाहिए।

उनकी शहादत (मानसिक और सामाजिक) को मान्यता मिलनी चाहिए।

उत्तराखंड सरकार को पत्रकारिता की इस विरासत को शैक्षिक पाठ्यक्रम में शामिल करना चाहिए।

✦ पत्रकारों की कलम ने ही राज्य आंदोलन की धार को तेज किया, लेकिन राज्य बनने के बाद उनकी भूमिका को दरकिनार कर दिया गया। यह अन्याय है। अगर आंदोलनकारियों की शहादत ने राज्य की नींव रखी, तो पत्रकारों की कलम ने उस नींव को मजबूती दी। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि –

👉 "उत्तराखंड राज्य आंदोलन शहीदों की लाशों पर और पत्रकारों की कलम की स्याही पर टिका है।"

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