समाज में बढ़ती पशु प्रवृत्ति
सत्यवीर सिंह 'मुनि'
मानव सभ्यता ने सदियों की यात्रा में अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। जहां एक ओर उसने विज्ञान, तकनीक, संचार और भौतिक समृद्धि में अभूतपूर्व प्रगति की है, वहीं दूसरी ओर नैतिक मूल्यों, संवेदनशीलता, और सामाजिक चेतना में गिरावट आई है। आज का समाज तेजी से उस दिशा में बढ़ रहा है जहाँ "पशु प्रवृत्ति" — अर्थात् संवेदनाशून्यता, स्वार्थ, हिंसा, वासनात्मकता
और अनैतिकता — सामान्य व्यवहार का अंग बनती जा रही है। यह प्रवृत्ति न केवल मानवीय मूल्यों का ह्रास है, बल्कि सभ्यता के लिए भी एक गंभीर खतरा पैदा हो गया है। पशु प्रवृत्ति का तात्पर्य उन व्यवहारों से है जो बिना विवेक, बिना नैतिक जिम्मेदारी और केवल स्वार्थ व वासना की पूर्ति हेतु किए जाते हैं। मनुष्य में पशु प्रवृत्ति और देव प्रवृत्ति दोनों का समावेश होता है। जब विवेक, करुणा, अनुशासन, प्रेम जैसे गुण प्रधान होते हैं, तो वह देवतुल्य होता है। परंतु जब लोभ, मोह, क्रोध, हिंसा, छल, बलात्कार, हत्या जैसे अराजक और स्वार्थमूलक व्यवहार प्रधान होते हैं, तो वह पशुत्व की ओर बढ़ता है। आज का समाज जिस दिशा में जा रहा है, उसमें अनेक नैतिक पतन स्पष्ट दिखाई देते हैं।
बलात्कार, बाल यौन शोषण और घरेलू हिंसा में वृद्धि होने के कारण, रोज़ अख़बारों में ऐसी खबरें आम हो चुकी हैं जहाँ रिश्तों की मर्यादा तार-तार होती है।
स्वार्थ की चरम सीमा ने
पड़ोसी की चिंता, सामाजिक सहयोग, और सामूहिक उत्तरदायित्व का भाव लुप्त हो गया है। नैतिक मूल्यों की उपेक्षा के कारण शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ़ नौकरी और पैसा बन चुका है। ‘चरित्र निर्माण’ जैसे शब्द पुस्तकों तक सीमित रह गए हैं। भोगवादी संस्कृति का प्रसार विज्ञापन, सिनेमा और सोशल मीडिया ने मनुष्य को उपभोक्ता बना दिया है। अधिक उपभोग, अधिक संग्रह, और अधिक दिखावा जीवन का उद्देश्य बन गया है। धार्मिकता का ढकोसला और पाखंड धर्म का आचरण नहीं, केवल प्रदर्शन बढ़ा है। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे बन रहे हैं पर मनुष्य भीतर से और अधिक क्रूर होता जा रहा है।
पशु प्रवृत्ति बढ़ने के कारण:-
इस नैतिक पतन के पीछे अनेक कारण हैं जो एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं-
० संस्कारहीन शिक्षा व्यवस्था, वर्तमान शिक्षा प्रणाली बच्चों को केवल किताबी ज्ञान देती है। नैतिक शिक्षा, सह-अस्तित्व, सेवा-भाव जैसे मूल्यों पर जोर नहीं दिया जाता।
० परिवार का विघटन
संयुक्त परिवार की परंपरा टूट चुकी है। माता-पिता दोनों काम में व्यस्त रहते हैं, बच्चों को समय नहीं मिलता। परिणामस्वरूप, बच्चों को अनुशासन, त्याग, संयम जैसे गुण नहीं मिल पाते।
० मीडिया और सोशल मीडिया का दुष्प्रभाव,
फिल्मों, वेब सीरीज़ और सोशल मीडिया पर उत्तेजक, हिंसक और अश्लील सामग्री धड़ल्ले से परोसी जा रही है। युवा वर्ग उसी को आदर्श मान रहा है।
० आर्थिक असमानता और बेरोजगारी के कारण जब जीवन में स्थिरता नहीं होती, जब पेट भरने को रोटी नहीं मिलती, तो नैतिकता पीछे छूट जाती है। गरीबी और बेरोजगारी से उपजी हताशा अपराधों को जन्म देती है।
० धार्मिक और राजनैतिक विघटन धर्म को राजनीति से जोड़ कर समाज को बाँटा जा रहा है। यह विभाजन समाज में द्वेष, हिंसा और भय का वातावरण उत्पन्न करता है।
निवारण के उपाय :-
इस गहराते नैतिक संकट से उबरने के लिए हमें सामूहिक और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर कार्य करना होगा:
० संस्कार आधारित शिक्षा
पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा, योग, ध्यान और मूल्यपरक कहानियाँ शामिल की जानी चाहिए। गुरुकुल परंपरा के मूल भाव को पुनः स्थापित करना होगा।
० मजबूत पारिवारिक व्यवस्था को आधार बनाकर
परिवार को पुनः ‘संस्कारशाला’ बनाना होगा। बच्चों को केवल सुविधा नहीं, समय और प्रेम दोनों देना आवश्यक है। दादी-नानी की कहानियां बच्चों को नैतिकता सिखाती हैं।
० मीडिया की भूमिका में सुधार के लिए सेंसर बोर्ड और सामाजिक संगठनों को अश्लीलता और हिंसा फैलाने वाले कंटेंट पर सख्ती से रोक लगाकर सकारात्मक कंटेंट को बढ़ावा देना होगा।
० ध्यान और योग का प्रसार
पशु प्रवृत्ति पर नियंत्रण हेतु आत्मचिंतन और आत्मनियंत्रण की आवश्यकता है। योग और ध्यान व्यक्ति को भीतर से शुद्ध करते हैं।
० सामाजिक जागरूकता अभियान के तहत स्कूलों, कॉलेजों, पंचायतों, मंदिरों और अन्य सार्वजनिक स्थलों पर नैतिकता पर आधारित जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए।
० धार्मिक मूल्यों की वास्तविक समझ
धर्म का अर्थ केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि 'धारण करने योग्य व्यवहार' है। गीता, उपनिषद, कुरान, बाइबिल जैसे ग्रंथों का सार जीवन में उतारने की आवश्यकता पर जोर देना चाहिए।
निष्कर्ष :-
आज जब हम तकनीकी दृष्टि से उन्नति कर रहे हैं, तब मानवता की नींव, नैतिकता – दरक रही है। समाज में बढ़ती पशु प्रवृत्ति एक गंभीर चेतावनी है कि यदि हमने आत्मावलोकन न किया, तो सभ्यता केवल भौतिक प्रगति का ढांचा बनकर रह जाएगी।
नैतिकता, करुणा, संवेदनशीलता और आत्मनियंत्रण ही वे मूल स्तंभ हैं जो मनुष्य को पशु से भिन्न बनाते हैं। इनका पुनर्प्रतिष्ठापन आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। यदि हम चाहते हैं कि आने वाली पीढ़ियाँ एक सुंदर, सुरक्षित और संतुलित समाज में जी सकें, तो हमें अभी से बदलाव की शुरुआत करनी होगी, स्वयं से, अपने परिवार से, अपने समाज से। जब तक मनुष्य भीतर से नहीं बदलता, कोई कानून, कोई शासन, कोई व्यवस्था पशुता को नहीं रोक सकती। सुधार का मार्ग बाहर नहीं, भीतर से शुरू होता है।