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राजस्थान के झालावाड़ के पिपलोदी गांव का स्कूल कैसे बना श्मशान, 7 बच्चों का हत्यारा कौन?:

क्लास रूम की दीवार पर लिखी ये लाइन......
(दिखाने की कोई चीज है तो वह है दया)
झालावाड़ जिले के पिपलोदी गांव के बच्चे रोज पढ़ते थे इस लाइन को। उन्हें क्या पता था सरकारी सिस्टम के पास दया नहीं होती। हां, दिखाने के लिए घड़ियाली आंसू जरूर होते हैं, जो हर हादसे के बाद जमकर बहाए जाते हैं। इसी स्कूल के 7 बच्चों की मौत हुई है और 27 घायल हुए हैं। कई बच्चे अब तक बेसुध हैं। लेकिन इस हादसे की कोई जिम्मेदारी लेने वाला नहीं है। जिम्मेदारी के नाम पर सिर्फ पांच शिक्षकों को निलंबित किया गया है, जबकि उनका काम पढ़ाना है बिल्डिंग बनाना नहीं। क्या किसी नेता या अफसर की कोई जिम्मेदारी नहीं है
कई सवाल उठ रहे हैं? लेकिन जवाब किसी के पास नहीं है। विद्या का मंदिर श्मशान में तब्दील हो जाता है और हमारा तंत्र सिर्फ उच्च स्तरीय जांच की बात करता है। अब हमारे सिस्टम को देखिए, जांच से पहले ही स्कूल की जर्जर इमारत पर बुलडोजर चलाकर बचे खुचे सबूत भी नष्ट कर दिए जाते हैं। ताकि न रहे बांस और न बजे बांसुरी। अब कर लो जांच।
लोकतंत्र की यही विडम्बना है। तंत्र के अंदर हो रही लापरवाही की कोई जिम्मेदारी नहीं लेता। न किसी को लेने देते हैं, अन्यथा स्कूल की इमारत तो नहीं गिरती?
झालावाड़ के सबसे बड़े अफसर (कलेक्टर) अजय सिंह की मानें तो हादसे के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है। क्योंकि उनके अनुसार स्कूल वालों ने कभी इसके जर्जर होने की सूचना ही नहीं दी। शिक्षा विभाग के अधिकारियों की लाइन भी मिलती-जुलती ही है।
शिक्षामंत्री ने अपने ट्वीट में लिखा
कि छुट्टी खत्म हो गई चलो स्कूल चले परन्तु शिक्षामंत्री शायद ये लिखना भूल गए... चलो स्कूल चलें, लेकिन अपने रिस्क पर। मासूमों और उनके घरवालों ने ये रिस्क उठाया, जिसका नतीजा है 25 जुलाई को सामने आई डरावनी हकीकत। क्या स्कूल की छत अचानक कमजोर हो
गई? वहां पर गांव वालो में से
घायल बच्चे विक्रम के पिता बाबूलाल ने कहा- दो साल से बिल्डिंग क्षतिग्रस्त थी। इस बार मरम्मत के लिए गांव वालों से 200-200 रुपए का चंदा लिया जाना था। किन्हीं कारणों से ये एकत्रित नहीं हो पाया।
काश, हम चंदा दे देते? दूसरे ग्रामीण ने कहा- एक बार पहले मरम्मत करवाई थी। इसी स्कूल में पढ़ने वाली बच्ची वर्षा राज क्रांति ने बताया- छत गिरने से पहले कंकड़ गिर रहे थे, बच्चों ने बाहर खड़े टीचर्स को इसकी जानकारी भी दी, लेकिन उन्होंने इस पर ध्यान ही नहीं दिया और थोड़ी देर बाद ही छत गिर गई। यानी छत पहले से कमजोर थी और ये सबको पता था।
असल में दोष और दोषी तो सामने हैं, लेकिन स्वीकारता कोई नहीं है?
सरकारें अपने जीवित होने के दावे करती हैं, उन्हें विचार करना चाहिए... चंदे से स्कूल की मरम्मत

कहां गया जनता का पैसा?

हर साल विधानसभा की टेबल थपथपाते हुए बजट पास होते हैं। खरबों रुपए डकार लिए जाते हैं, पर स्कूलों को बिल्डिंग नहीं मिलती। अगर मिलती भी है तो उसकी मेंटेनेंस नहीं होती। विभाग को यही नहीं पता होता कि वो जर्जर है कि नहीं। आखिर कितनी जर्जर व्यवस्था है.. हमारी।
लोकसभा में आरएलपी के सांसद हनुमान बेनीवाल ने कहा कि नेताओं और अफसरों के बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाना चाहिए। काश ऐसा हो जाए।
क्योंकि...
सिस्टम सरकारी स्कूलों से इसलिए बेखबर है क्योंकि वहां रसूखदारों के बच्चे नहीं पढ़ते। वहां गरीब का बच्चा पढ़ता है, जिनकी हैसियत केवल एक वोट देने वाले दिन के अलावा कुछ नहीं है। जब भी सरकारी स्कूल की बात आती है तो दावा किया जाता है कि अंग्रेजी माध्यम के स्कूल बनाएंगे। पोषाहार देंगे। सीसीटीवी लगाएंगे। फ्री की किताबें बांटेंगे।
सरकारें क्यों नहीं समझती, इनसे ज्यादा जरूरी है जो हमारे पास है उसकी सार-संभाल कर लें। क्योंकि रोजाना लाखों गरीब लोगों के सपने यहां बड़े होते हैं।
किसी नेता, अफसर, मंत्री का घर कभी ऐसे भरभरा कर तो नहीं गिरा है?
क्योंकि वहां कमीशन नहीं बंटते?
ठेके नहीं उठते और वो सपनों के घर बनते हैं। क्या हमारे भविष्य को गढ़ने वाले शिक्षा के मंदिर इस तरह के उपेक्षित होने चाहिए कि उनके कमरे तक भरभरा कर गिरने लग जाए?
"इन सब बातों पर सरकार को ध्यान देना चाहिए नहीं तो आम पब्लिक का सरकार से विश्वास ही उठ जाएगा" ।

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