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साधकों के लिए अमृत तुल्य है, स्वर विज्ञान।

स्वर शब्द, स्व+अर शब्दों से मिलकर बना है। स्व का अर्थ है स्वयं की अर का अर्थ है आवाज इस प्रकार स्वर का अर्थ है स्वयं की आवाज। जब हमारा प्राण श्वास-प्रश्वास के माध्यम से शरीर का पोषण करता है तो प्राण "सों" आवाज के साथ भीतर जाता है और "हं" आवाज के साथ बाहर आता है। इस प्रकार मनुष्य दिन-रात में 21600 बार अनजाने में हंसों मंत्र का जाप करता है। यदि साधक अपनी श्वास पर मन एकाग्र करता है तो हंसों मंत्र सोऽहं मंत्र में बदल जाता है, जब सासों पर मन लगाकर अन्तर्मन में सोऽहं की ध्वनि सुनी जाती है तब यह ध्वनि अजपा जप या अजपा गायत्री बन जाती है।
जब प्राण का आवागमन बाएं नासारन्ध्र से होता है तो उसे चन्द्र स्वर कहते है, चन्द्र स्वर को योग की भाषा में इड़ा नाड़ी कहा जाता है। जब प्राण का आवागमन दाएं नासारन्ध्र से होता है तो उसे सूर्य स्वर कहते है, सूर्य स्वर को योग की भाषा में पिंगला नाड़ी कहा जाता है। जब प्राण का आवागमन दोनों नासारन्ध्रों से होता है तो उसे सुषुम्ना स्वर या शून्य स्वर कहा जाता है। सुषुम्ना में प्राण का प्रवाह कुछ सेकेंड के लिए ही होता है। योगी साधना द्वारा सुषुम्ना में प्राण का प्रवाह चार मिनट तक बढ़ा लेते हैं। सुषुम्ना स्वर में योगसाधना करने एवं ध्यान लगाने से शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है। यदि सुषुम्ना स्वर में योगसाधना के अतिरिक्त कोई और कार्य किया जाय तो वह निष्फल हो जाता है। बाएं एवं दाएं नासारन्ध्र में प्राण का प्रवाह स्वस्थ मनुष्य में 60 मिनट से लेकर 90 मिनट तक मनुष्य की प्रकृति के अनुसार होता है।
इड़ा नाड़ी अर्थात चन्द्र स्वर में मानसिक श्रम वाले कार्य ज्यादा प्रभावकारी होतें है। पिंगला नाड़ी अर्थात सूर्य स्वर में शारीरिक श्रम वाले कार्य अधिक प्रभावशाली होतें है। सासों का विज्ञान माता पार्वती और योगेश्वर शिव संवाद के रूप में 395 श्लोकों में "शिवस्वरोदय" नामक ग्रन्थ के रूप में है। यह ग्रन्थ स्वर प्रवाह के माध्यम से स्वास्थ्य, समृद्धि, लाभ, हानि, जय, पराजय, वशीकरण, उच्चाटन आदि का प्रयोग बताता है।
स्वर दैवज्ञों का मत है यदि भोजन सूर्य स्वर में किया जाए तो पाचन सही प्रकार से होता है, गैस नहीं बनती है। उसी प्रकार सूर्य स्वर में शौच किया जाए तो कब्ज दूर होता है। यदि चन्द्र स्वर में मूत्र त्याग किया जाए तो किडनी खराब नहीं होती है। चन्द्र स्वर में पानी पीने से रक्तचाप ठीक रहता है। हमारे चन्द्र और सूर्य स्वर में पांच-पांच तत्व सक्रिय रहते हैं। ये पांच तत्व आकाश, वायु, अग्नि,जल और पृथ्वी है। जब सांस लम्बाई चार अंगुल अर्थात तीन इंच होती है, तो स्वरों में अग्नि तत्व सक्रिय होता है, यदि सांस की लम्बाई आठ अंगुल अर्थात छ: इंच होती है, तो वायु तत्व सक्रिय होता है, यदि सांस की लम्बाई बारह अंगुल अर्थात नो इंच होती है, तो पृथ्वी तत्व सक्रिय होता है, यदि सांस की लम्बाई बीस अंगुल अर्थात बारह इंच होती है, तो जल तत्व सक्रिय होता है। आकाश तत्व में सांस की लम्बाई एक अंगुल से भी कम रह जाती है। आकाश तत्व चलने पर प्राण वायु नासारन्ध्रों के भीतर ही घूमती रहती है। प्रत्येक स्वर में पहले वायु तत्व का प्रवाह आठ मिनट होता है, दूसरे नंबर पर अग्नि तत्व का प्रवाह बारह मिनट होता है, तीसरे नंबर पर जल तत्व का प्रवाह सोलह मिनट होता है चौथे नंबर पर पृथ्वी तत्व का प्रवाह बीस मिनट होता है अन्त में आकाश तत्व का प्रवाह चार मिनट होता है। यदि स्वर के अनुरूप जीवन यापन किया जाए तो व्यक्ति सर्वतोमुखी विकास करता है।
योगाचार्य सत्यवीर सिंह मुनि
सुआवाला, बिजनौर, उ0प्र0।

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