ऐसे आदेश जारी होतें रहेंगे तो क्या पत्रकारिता स्वतंत्र रूप से कार्य कर पाएगी..???
भारत में स्वच्छ और निष्पक्ष पत्रकारिता का महत्व हमेशा से रहा है, क्योंकि यह समाज से लेकर सत्ता तक सभी को आईना दिखाने का काम करती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से, जिस तरीके से लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के स्तर को कमजोर करने की साजिश रची जा रही है, वह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। जब कभी सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को पत्रकारों की पत्रकारिता चुभने लगती है, तो उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है, वो भी उस राज्य और देश में जहां पत्रकारिता स्वतंत्र है और लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मानी जाती है। यह सवाल उठता है कि क्या अब स्वच्छ पत्रकारिता करने पर पूरी तरह प्रतिबंध लग जाएगा या स्वतंत्र पत्रकारिता अब नेताओं और अफसरों का गुलाम बनकर रह जाएगी?
हाल-फिलहाल के दिनों में जिस तरीके की पत्रकारिता देखने को मिलती है और पत्रकारिता पर हो रहे हमलों को देखते हुए अब यही कहा जा सकता है कि मीडिया अब स्वतंत्र नहीं रही। नेताओं से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों तक, जब कभी उनके विभाग की लापरवाही मीडिया द्वारा दिखाई जाती है, तो उनके द्वारा विभाग में मीडिया की एंट्री पर ही प्रतिबंध लगा दिया जाता है।
नेताओं का दोहरा मापदंड और मीडिया पर हमले
यह विडंबना ही है कि वैसे-वैसे नेता अब मीडिया की कार्यशैली पर सवाल उठाने लगते हैं, जिनकी उत्पत्ति मीडिया ट्रायल से ही हुई थी। संवाददाता सम्मेलन में नेता सूत्र को "मूत्र" बताते हैं, तो एक ऐसे नेता जिन्होंने सत्ता की मलाई खाने के लिए न जाने कितनी बार गठबंधन बदला होगा, वो भी मीडिया को कहते हैं, "आप लोग तो उस दल के मीडिया हैं।" देश की मीडिया को दो खेमों में बांटने और उसकी स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने में राज्य से लेकर केंद्र सरकार तक सभी दोषी हैं। जब कभी किसी पत्रकार ने स्वच्छ और सबूत के आधार पर पत्रकारिता की है, तो पहले उन्हें डराया, फिर धमकाया और बाद में एफआईआर करते हुए उनकी साफ-सुथरी पत्रकारिता को समाज के लिए भ्रामक बताते हुए उनकी पत्रकारिता को गुलाम बनाने की फिराक में लग जाते हैं। ऐसे गुलाम पत्रकारिता करने वाले पत्रकार को आज के समाज में "गोदी मीडिया" का नाम दिया जा रहा है, जिनका काम राज्य से केंद्र तक की सरकार के प्रवक्ता के रूप में किया जाता है।
बिहार में पत्रकारिता पर बढ़ते प्रतिबंध
यह बताते चलें कि हमेशा से ही पत्रकार और विपक्ष दोनों समाज के पीड़ित लोगों की आवाज थे, जिनका काम समाज के शोषित लोगों की आवाज को सरकार तक पहुंचाने का था। लेकिन बदलते दौर में, सरकार किसी की भी हो, सभी अपने राज्य की कमजोरी को सुनना नहीं चाहते हैं। अगर राज्य की कमजोरी, भ्रष्टाचार और विभाग की लापरवाही को कोई पत्रकार मजबूती से उठाता है, तो उन्हें यह चुभने लगता है और उन पर न जाने क्या-क्या कार्रवाई की जाने लगती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
बिहार की पत्रकारिता में पहले से ही स्वास्थ्य और शिक्षा विभाग में पत्रकारों की एंट्री पर प्रतिबंध था, अब इस सूची में पुलिस विभाग ने भी अपना नाम जोड़ लिया है। राज्य के सबसे बड़े पुलिस अधिकारी ने एक लेटर जारी करते हुए सभी पुलिस अधिकारियों को यह आदेश दिया है कि अब कोई भी पदाधिकारी पत्रकार को स्टेटमेंट नहीं देगा। किसी भी खबर की पुष्टि के लिए अब एक अधिकारी नियुक्त है, जो राज्य की खबरों को पत्रकारों तक पहुंचाएगा। बिहार के डीजीपी ही नहीं, मुख्यमंत्री भी अब पत्रकारों को पसंद नहीं करते हैं। पिछले कई महीनों से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सार्वजनिक कार्यक्रमों में पत्रकारों की एंट्री पर पाबंदी लगा दी गई है। इससे आप समझ ही गए होंगे कि जब बिहार का मुखिया ही पत्रकारों को पसंद न करता हो, तो राज्य के अधिकारी क्या पसंद करेंगे। थोड़ी सी कड़वी सवाल या विभाग की लापरवाही के बारे में पूछ ले तो विभाग में आना-जाना पत्रकारों के लिए बंद हो जाता है। हालांकि, यह सब बात गोदी मीडिया पर लागू नहीं होती है।
पत्रकारिता का भविष्य और चुनौती
तो क्या अब पत्रकार सरकार के प्रवक्ता के रूप में काम करेंगे, जिन्हें लोग गोदी मीडिया कहेंगे, या फिर प्रेस की स्वतंत्रता और सवाल पूछने के अधिकार के अंतर्गत काम करेंगे, जिन्हें सरकार से लेकर प्रशासन तक "दूसरे दल के पत्रकारों" के नाम से जाना जाएगा? पत्रकारों को लेकर सरकार और उनके अफसरों के बढ़ते मनोबल के खिलाफ अब सभी पत्रकारों को एकजुट होकर अपने अधिकार की मांग करने की जरूरत है। आखिरकार, अपनी गुणगान दिखाने के लिए पत्रकारों के अधिकारों का हनन क्यों किया जा रहा है? यह चिंतनीय विषय है और इस पर श्रमजीवी पत्रकार संघ अपने अधिकार को लेकर सड़क से सदन तक आवाज उठाने की तैयारी कर रही है।
सरकार की भूमिका और गिरता स्तर
मीडिया को दो खेमे में बांटने और उनके अस्तित्व को कमजोर करने के साथ-साथ उनके अधिकारों की कटौती में सरकार दोषी है। देश की साफ-सुथरी पत्रकारिता का स्तर वर्ष 2014 के बाद से जिस तरीके से गिरना शुरू हुआ, लोकतंत्र की नींव कमजोर होने लगी। नई सरकार बनने के बाद सत्ता की मलाई खाने वाले कुछ पत्रकारों ने जिस तरीके से पत्रकारिता का चोला पहनकर मौजूदा सरकार के प्रवक्ता के रूप में काम करना शुरू कर दिया और दिनभर सरकार के गुणगान के साथ-साथ विपक्ष की कमजोरी को ऐसे दिखाने लगे जैसे अब सत्ता परिवर्तन होगा ही नहीं या यूं कहें कि लोकतंत्र खत्म हो गया। स्थिति यह हो गई थी, सरकार ने भी पत्रकार के "औकात" का अंदाजा लगाया और उनके "औकात" के अनुसार गुलाम बनाना शुरू कर दिया। सरकार की विज्ञापन नीति और चाटुकारिता की दलदल में कुछ पत्रकारों ने पूरे पत्रकार समाज को ही बंधक बना दिया। हालांकि, कुछ ऐसे भी पत्रकार हैं, जिन्होंने उनकी गुलामी पसंद नहीं की और लगातार सरकार की नाकामियों को दिखाने का काम किया, लेकिन सरकार और उनके दलालों ने उन्हें कमजोर करने में न जाने क्या-क्या कदम उठाए। कुछ स्वाभिमानी पत्रकार टूट गए तो कुछ को गुमनाम कर दिया गया। पर हौसला नहीं हारे, आज भी कुछ स्वाभिमानी पत्रकार समाज के पीड़ित लोगों की आवाज, भ्रष्टाचार और अफसरशाही के मुद्दे को लेकर प्रमुखता से सरकार के पास अपनी बात रखते हैं, लेकिन सरकार इन बातों को सुनने के बजाय पत्रकारिता के अधिकार का गला घोटने का काम कर रही है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है। क्या मौजूदा सरकार बिना निष्पक्ष पत्रकारिता के ही सुंदर लोकतंत्र की कल्पना कर रही है?
"फूट डालो और राज करो" की नीति
पत्रकारों पर अंग्रेजों की नीति लागू कर उनके अधिकारों का हनन किया जा रहा है। देश को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजों की "फूट डालो और राज करो" की नीति के तर्क पर देश की मीडिया को दो खेमों में बांटकर लोकतांत्रिक देश में लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के अस्तित्व को खत्म कर उन्हें गुलाम बनाने की तैयारी में लगी हुई है। जिस तरीके से सरकार सूचना के नाम पर विज्ञापन देने तथा अपने एजेंडे के तहत न्यूज़ चलाने की गाइडलाइन जारी करती है, यह मीडिया की स्वतंत्रता पर खतरा है। अगर सरकार की गाइडलाइन के अनुसार न्यूज़ नहीं चलाए गए, तो उन चैनल/अखबारों के विज्ञापन को बिना कारण बताए रोक दिया जाता है, जिससे उस संस्थान की अर्थव्यवस्था खराब हो जाती है और वह डूबने के कगार पर पहुंच जाता है। नतीजा यह होता है कि या तो सरकार के गाइडलाइन को मानकर सरकार के समक्ष अपनी निष्पक्ष पत्रकारिता का गला घोंटते हुए उनके प्रवक्ता के रूप में काम करते हुए गोदी मीडिया की श्रेणी में शामिल हो जाते हैं या फिर सरकार के खिलाफ होकर अपने संस्थान को बंद कर अकेले निष्पक्ष पत्रकारिता की आवाज को बुलंद करें।
सोशल मीडिया और पत्रकारिता का पतन
सोशल मीडिया की एंट्री, पत्रकारों का गिरता स्तर और गाइडलाइन के नाम पर सरकार की चुप्पी ने देश की पत्रकारिता को अपाहिज बना दिया है। सोशल मीडिया कभी पत्रकारिता का अड्डा रहा ही नहीं, लेकिन मौजूदा वक्त में जिस तरीके से सोशल मीडिया पर पत्रकारों की बाढ़ आ गई, जहां अभिव्यक्ति की आजादी है, जिसे जो मर्जी चाहे बोल सके, सरकार का कोई गाइडलाइन नहीं। जिसे मन किया अपना एजेंडा सेट किया और माइक उठाकर पत्रकार बन गए। सोशल मीडिया पर माइक उठाकर बने पत्रकारों को ना तो किसी डिग्री की जरूरत होती है और ना किसी गाइडलाइन की। बस यहीं से शुरू हुआ पत्रकारिता का पतन। सोशल मीडिया पर पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों को लेकर ना तो कभी सरकार गंभीर हुई और ना ही विभाग के अधिकारी। कभी गंभीर हुए तो पत्रकारों के अधिकारों की कटौती को लेकर नियम-कानून बनाने लगे।
खैर, पत्रकारिता के गिरते स्तर की कहानी बहुत लंबी-चौड़ी है। इसमें सिर्फ सरकार ही दोषी नहीं है, पत्रकार समाज के कुछ चाटुकार पत्रकार से लेकर अफसर और विदेशी कंपनियां जैसे YouTube, Facebook के साथ-साथ और भी कई जिम्मेदार हैं, जो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को गुलाम बनाने तथा इसके अस्तित्व को खत्म करने की तैयारी में लगे हुए हैं, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।
क्या आपको लगता है कि भारत में पत्रकारिता अपनी पुरानी गरिमा वापस हासिल कर पाएगी?