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।। गाँव की याद आई चुनाव में – शहर से लौटे वोटर और उम्मीदवारों की चालबाज़ियाँ।।



रिपोर्टर विशेष | व्यंग्य समाचार | उत्तराखंड

चुनाव का मौसम आ गया है, और साथ ही लौट आए हैं वो 'बड़े शहरों' में बसे हमारे अपने – दिल्ली, देहरादून, मुम्बई या नोएडा से। ये वही लोग हैं जो गाँव की टूटी पगडंडियों, बहती नालियों और सूखते हैंडपंपों से वर्षों पहले अपना नाता तोड़ चुके थे। लेकिन अब चुनाव है जनाब, और इन शहरवासियों को फिर से याद आया कि उनका भी एक 'मूल गाँव' हुआ करता है – जहां अब भी वोटर लिस्ट में उनका नाम "ससम्मान" दर्ज है।

दोहरी नागरिकता, एक ही मत – और वो भी पक्के इरादे से

गाँवों की गलियों में अब शहर के कपड़े पहनकर, महंगे चश्मों में लिपटे, स्मार्टफोन से दिशा पूछते 'स्थानीय-से-शहरी' लोग घूम रहे हैं। ये वही "द्वी-क्षेत्रीय वोटर" हैं जिनके लिए गाँव में न कोई घर ज़मीन बची, न रोटी की ज़रूरत। पर उम्मीदवारों के लिए ये “चलती फिरती ईवीएम” से कम नहीं।

इन वोटरों को न तो कोई डर है प्रशासन का, न नैतिकता का। क्यों हो भी? कंधे पर खुद उम्मीदवार का हाथ जो होता है! थाना, पुलिस, प्रशासन – सब इनके लिए बस दिखावे की बातें हैं। इनका आना होता है एक मिशन के तहत – "चलो वोट डाल आते हैं, और हां, थोड़ा गाँव भी घूम लेते हैं।"

उम्मीदवारों का प्रेम – केवल चुनावी मौसम में

उम्मीदवारों का गाँवप्रेम भी कमाल का है। जो लोग अपने बूढ़े माँ-बाप को गाँव में अकेला छोड़कर नौकरी के नाम पर शहर भाग गए थे, उन्हीं को आज चुनाव में गाँव के विकास की चिंता सता रही है। और वोट के लिए तो "घर वापसी" का अभियान भी छेड़ दिया गया है।

रेलवे स्टेशन और बस अड्डों पर उम्मीदवारों के लोग बाकायदा "स्वागत समिति" लेकर खड़े रहते हैं – "भैया आए हो वोट डालने? आइए जीप तैयार है, ठहरने का इंतज़ाम भी है, और खाने के लिए देसी चिकन भी!"
कुछ तो सीधे हेलीकॉप्टर से उतरते हैं, और गाँव के बच्चों के लिए वो स्पेसशिप वाला अंकल बन जाते हैं।

गाँववाले देखते हैं तमाशा – मजबूरी में

स्थानीय ग्रामीण चुपचाप ये तमाशा देख रहे हैं। जिनका नाम राशन कार्ड में नहीं जुड़ पा रहा, वो इस बात पर आश्चर्य कर रहे हैं कि "दिल्ली वाले शर्मा जी" का नाम वोटर लिस्ट में कैसे चढ़ गया? और वो भी पूरे परिवार समेत! पर कोई कुछ नहीं कहता – आखिर किससे पंगा लें, उम्मीदवार का मेहमान है!

निष्कर्ष: वोट की शक्ति या प्रहसन की नीति?

चुनाव गाँव की असल ज़रूरतों का पर्व होना चाहिए – सड़क, पानी, स्कूल, रोजगार। पर यहाँ तो ये एक "शहरी-मिलन" उत्सव बन गया है, जिसमें गाँव सिर्फ मंच है और असली खेल मंच के पीछे चल रहा है।
जो लोग सालों से गाँव में रह रहे हैं, वही आज सबसे पीछे हैं। और जो लोग शहरों से आए हैं "गाँव घूमने", उनका वोट सबसे कीमती है।

"चलो वोट डाल आते हैं, गाँव भी देख लेंगे!"
कहकर लौटने वाले इन लोगों से गाँव को अब डर लगने लगा है। कहीं अगली बार ये "घूमने" फिर न आ जाएँ!

(यह लेख एक व्यंग्य है और इसका उद्देश्य चुनावी प्रवृत्तियों पर सामाजिक कटाक्ष करना है, किसी विशेष व्यक्ति या समुदाय को ठेस पहुँचाना नहीं।)

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