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मृत्युभोज

*मृत्यु भोज*
अपने बुजुर्गों की कमाई हुई संपत्ति में से कुछ पैसा उन्हीं के मृत्यु भोज में खर्च करना कोई गलत नहीं है यदि किसी को लगता है की मृत्यु भोज ना करके लोग कर्ज से बच जाएंगे तो ऐसा बिल्कुल नहीं है लोग क्लब,दारु,गुटखा,शराब,पार्टी, प्री वेडिंग सूट, बेबी शावर सूट बच्चों के बर्थडे और मैरिज एनिवर्सरी में सेमेस्टर प्रणाली को अपना लिया गया है हर 6 महीने में लोग अपनी बुजुर्गों की कमाई हुई संपत्ति में से मृत्यु भोज से कहीं ज्यादा इन चीजों में खर्च कर देते हैं मृत्यु भोज बंद करने की बजाय अगर लोग दिखावा बंद कर दें तो समाज में ज्यादा सुधार हो सकता है कोई भी समाज वाला नहीं कहता कि तुम छप्पन भोग ही खिलाओ मृत्यु भोज में और ना ही हमारे बुजुर्ग ऐसा करते थे यह कार्य बहुत साधारण तरीके भी किया जाता था लेकिन लोग परेशान है कि सरपंच साहब ने 10 प्रकार का हलवा बनवाया था तो हम भी बनवाएंगे ताकि समाज में हमारा नाम हो लोग मौका नहीं छोड़ना चाहते दिखावा करने का इसमें गलती समाज की नहीं है और ना ही हमारे बुजुर्गों के बनाए हुए रीति रिवाजों की है बरसों से चली आ रही परंपरा में ऐसा कब हुआ है कि हमारे बुजुर्गों ने 56 भोग मृत्युभोज में बनवाए हो और 15 गांव के लोगों को खिलाएं हो इस बर्बादी के लिए व्यक्ति स्वयं जिम्मेदार है क्योंकि उसे लालसा है पटेल साहब जैसे संबोधन सुनने की इसमें मृत्यु भोज या किसी अन्य रीति-रिवाज को क्यों दोष देना लोगों के ऊपर बढ़ते हुए क़र्ज़ का कारण मृत्यु भोज या कोई बुजुर्गों के बनाए गये रीति रिवाज़ नहीं है सिर्फ और सिर्फ दिखावा है और इसका ज़िम्मेदार वह व्यक्ति स्वयं है यदि हमारे बुजुर्ग हमारे लिए इतना कुछ करके गए हैं या हम इस लायक है कि अपने बुजुर्गों के लिए कुछ कर सकते हैं तो मृत्युभोज या किसी भी प्रकार का उनके नाम से दान पुण्य करने में क्या कुछ बुराई नहीं है और यदि आपका सामर्थ नहीं है तो यकीन मानिए आपके बुजुर्ग कभी नहीं चाहेंगे कि आप कर्ज लेकर या उनकी बनाई हुई संपत्ति को बेचकर मृत्युभोज कराएं जो बुजुर्ग कुछ पैसे बचाने की खातिर बीमार होने पर हॉस्पिटल जाने से कतराते हैं टूटे हुए चश्मे में कई दिन बिताते हैं फटे पुराने कपड़े पहनकर अपने बच्चों की भविष्य के लिए एक-एक रुपया बचाते हैं वह आपके द्वारा कर्ज लेकर किए हुए मृत्यु भोज से उनकी आत्मा को शांति कैसे मिल सकती है इसलिए इस विषय पर निर्णय सत प्रतिशत परिवार और बच्चों का ही होना चाहिए वह भी इस बात को ध्यान में रखकर की समाज के लोग गांव के लोग क्या सोचेंगे क्या कहेंगे कोई कुछ नहीं कहेगा एक-दो महीने बात करने के बाद अच्छा हो या बुरा सब भूल जाएंगे ,समाज के कुछ लोग इस बारे में सोच रहे हैं बहुत अच्छी बात है लेकिन जब तक व्यक्ति स्वयं अपने बारे में नहीं सोचेगा परिवर्तन होना संभव नहीं है।
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