
भारत में डॉक्टरों और दवा कंपनियों की साठ-गांठ
भारत में स्वास्थ्य सेवा प्रणाली, जो लोगों को जीवनदान देने वाली मानी जाती है, अक्सर डॉक्टरों और दवा कंपनियों के बीच एक अनैतिक साँठगाँठ का शिकार हो जाती है। यह मिलीभगत सीधे तौर पर मरीजों की जेब पर डाका डालती है और उन्हें अनावश्यक खर्चों के बोझ तले दबा देती है। यह सिर्फ एक संयोग नहीं, बल्कि एक व्यवस्थित भ्रष्टाचार है जो दवा कंपनियों के भारी मुनाफे और कुछ डॉक्टरों के लालच के कारण फल-फूल रहा है।
यह गठजोड़ कई तरीकों से काम करता है, जो मरीजों के लिए अदृश्य होते हैं:
दवा कंपनियाँ डॉक्टरों को अपनी ब्रांडेड और महंगी दवाओं को लिखने के लिए प्रेरित करती हैं, जबकि उनके सस्ते जेनेरिक विकल्प भी उपलब्ध होते हैं। डॉक्टरों को इन दवाओं को लिखने के लिए कमीशन, उपहार, विदेश यात्राएँ या यहाँ तक कि नगद भुगतान भी किया जाता है।
कई बार डॉक्टर दवा कंपनियों या डायग्नोस्टिक सेंटरों से मिलीभगत करके अनावश्यक मेडिकल जाँचें या सर्जिकल प्रक्रियाएँ सुझाते हैं। ये जाँचें या प्रक्रियाएँ मरीजों के लिए न सिर्फ आर्थिक बोझ बनती हैं, बल्कि कई बार उनके स्वास्थ्य के लिए भी जोखिमपूर्ण हो सकती हैं।
दवा कंपनियाँ अक्सर "वैज्ञानिक सम्मेलनों" का आयोजन करती हैं, जो वास्तव में डॉक्टरों को अपनी दवाएँ बेचने और उन्हें महंगे उपहार देने का एक बहाना होता है। इन सम्मेलनों में चिकित्सा विज्ञान की चर्चा कम और बिक्री बढ़ाने के हथकंडे ज़्यादा होते हैं।
यह साठगाँठ मेडिकल कॉलेज के दिनों से ही शुरू हो जाती है। दवा कंपनियाँ मेडिकल छात्रों और नए डॉक्टरों को लक्षित करती हैं, ताकि वे अपने करियर की शुरुआत से ही उनकी दवाओं को प्राथमिकता दें।
इस मिलीभगत का सबसे सीधा और बुरा असर मरीजों पर पड़ता है:
मरीजों को अनावश्यक रूप से महंगी दवाएँ खरीदनी पड़ती हैं और गैर-ज़रूरी जाँचों पर पैसा खर्च करना पड़ता है, जिससे उनका इलाज का खर्च कई गुना बढ़ जाता है।
इस तरह की धोखाधड़ी से स्वास्थ्य सेवा प्रणाली और डॉक्टरों पर से लोगों का विश्वास उठने लगता है।
अनावश्यक दवाओं के सेवन या गलत उपचार से मरीजों के स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुँच सकता है।
भारत में इस समस्या से निपटने के लिए कुछ कानून और नियामक संस्थाएँ हैं, लेकिन उनका क्रियान्वयन अक्सर कमजोर होता है।
इंडियन मेडिकल काउंसिल (IMC) ने डॉक्टरों के लिए कुछ आचार संहिताएँ बनाई हैं, जो उन्हें दवा कंपनियों से उपहार लेने या व्यावसायिक हितों में शामिल होने से रोकती हैं। हालांकि, इन नियमों का उल्लंघन बड़े पैमाने पर होता है और दोषी डॉक्टरों के खिलाफ शायद ही कभी कड़ी कार्रवाई की जाती है।
इस गंभीर समस्या से निपटने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है:
सरकार और नियामक निकायों को कठोर कदम उठाने चाहिए और दोषी डॉक्टरों व दवा कंपनियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए।
जेनेरिक दवाओं के इस्तेमाल को अनिवार्य किया जाना चाहिए और डॉक्टरों को जेनेरिक विकल्प लिखने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
मरीजों को अपने अधिकारों और विकल्पों के बारे में जागरूक किया जाना चाहिए। उन्हें डॉक्टरों से दवाओं और जाँचों के बारे में सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
डॉक्टरों और दवा कंपनियों के बीच वित्तीय संबंधों को सार्वजनिक किया जाना चाहिए ताकि पारदर्शिता बढ़े।
मेडिकल कॉलेजों में छात्रों को चिकित्सा नैतिकता के बारे में गहन शिक्षा दी जानी चाहिए।
यह एक जटिल समस्या है जिसके लिए सरकार, स्वास्थ्य पेशेवरों, दवा कंपनियों और आम जनता सभी के सहयोग की आवश्यकता है। तभी हम एक ऐसी स्वास्थ्य प्रणाली का निर्माण कर पाएंगे जहाँ मरीजों का हित सर्वोपरि हो, न कि सिर्फ मुनाफे का लालच।
मनीष सिंह
शाहपुर पटोरी
@ManishSingh_PT