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जिंदगी के दो पहलू

हर इंसान की ज़िंदगी में दो कहानियाँ साथ-साथ चलती हैं—एक जो दुनिया देखती है, और दूसरी जो सिर्फ़ वो इंसान महसूस करता है। सामाजिक कहानी, वो होती है जो हम दिखाते हैं—हमारी हँसी, हमारी उपलब्धियाँ, हमारा संघर्ष जो बाहर से दिखता है। लोग तालियाँ बजाते हैं, सराहते हैं, आलोचना करते हैं या सलाह देते हैं। लेकिन इस सबके पीछे एक और कहानी चल रही होती है—व्यक्तिगत कहानी। एक ऐसी कहानी जो किसी की नज़र में नहीं आती, जो आँखों में नहीं, दिल में चलती है।

इस कहानी के किरदार अक्सर अनकहे होते हैं—कुछ सपने जो कभी पूरे नहीं हुए, कुछ डर जो हर रोज़ जीते हैं, कुछ सवाल जो जवाब माँगते हैं, और कुछ आंसू जो रात के अंधेरे में बहते हैं। इसमें खलनायक भी होते हैं—हालात, असुरक्षाएँ, अकेलापन, टूटे रिश्ते या कभी-कभी खुद की ही कमज़ोरियाँ। इस कहानी की नायिका होती है वो आत्मा, जो हर सुबह खुद को समेट कर दुनिया के सामने मुस्कान पहनकर खड़ी हो जाती है।

इंसान इस व्यक्तिगत कहानी पर एक घना पर्दा डाल देता है, इतना घना कि कोई झाँक भी न सके। पर उस पर्दे के पीछे एक तूफ़ान चलता रहता है—कभी ग़म का, कभी उम्मीद का, कभी पछतावे का, और कभी प्यार का। यह कहानी किसी किताब में नहीं मिलती, किसी मंच पर नहीं सुनाई जाती। यह सिर्फ़ महसूस की जाती है—हर धड़कन में, हर चुप्पी में।

और सबसे खास बात यह है कि इस कहानी का अंत क्या होगा, कैसा होगा, ये खुद उस इंसान को भी नहीं पता होता। वो बस चल रहा होता है—टूटते हुए भी, जुड़ते हुए भी। बस जी रहा होता है अपनी अधूरी, अनकही और बेहद ख़ूबसूरत कहानी को।

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