
क्या यही तरक्की है? सोचने का विषय!
आज की भागती-दौड़ती दुनिया में हर व्यक्ति अपनी जिंदगी को बेहतर बनाने की चाह में सब कुछ पीछे छोड़ कर बड़े शहरों का रुख करता है। कोई अपने पैतृक घर, कोई अपना गाँव, तो कोई अपनी पहचान तक छोड़कर गुरुग्राम जैसे महानगर में आकर बसता है। सपनों का शहर, ऊँचाईयों की चाहत और ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने की लालसा—यही सब उसे खींच लाते हैं।
लेकिन क्या यही सच्चाई है? क्या यही तरक्की का असली चेहरा है?
सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी वर्षों से व्यवस्था सुधारने का दावा करते आ रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि यह शहर किसी भी गाँव से बत्तर स्थिति में है। हर चौराहे पर भयंकर ट्रैफिक जाम दिनचर्या बन चुका है। ड्रेनेज सिस्टम की हालत इतनी खराब है कि थोड़ी सी बारिश में पूरा शहर थम जाता है।
बारिश के कुछ घंटों में करोड़ों की संपत्ति और वाहन बर्बाद हो जाते हैं। सड़कों पर बहता गंदा पानी, घंटों ट्रैफिक में फंसे लोग और टूटती उम्मीदें—यही महानगरों की असली तस्वीर है।
गुरुग्राम ही क्यों? यह कहानी दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे सभी बड़े शहरों की है। स्मार्ट सिटी, विश्वस्तरीय सड़कें, डिजिटल इंडिया के दावों के बावजूद जमीनी सच्चाई इससे बहुत दूर है।
क्या यह तरक्की है? क्या यह वास्तव में नया जीवन है? क्या यह वही आधुनिक भारत है, जिसका सपना हम देखते हैं?
आज हमें सोचना होगा—
- अगर शहर में व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं,
- अगर हर मानसून एक त्रासदी लेकर आता है,
- अगर नागरिक अपनी मेहनत की कमाई सड़कों पर बहा देने को मजबूर हैं।
तो यह किस प्रगति का प्रतीक है?
सिर्फ चमक-दमक और ऊँची इमारतें ही महानगर नहीं बनातीं। बुनियादी सुविधाएं, योजनाबद्ध विकास, नागरिकों की सुरक्षा और गरिमा ही किसी शहर की असली पहचान होती हैं।
आज हमें यह सवाल खुद से पूछने की जरूरत है—
"क्या यही तरक्की है?"
"क्या यही नया जीवन है?"
"क्या हम सच में एक विकसित समाज में जी रहे हैं?"
यह सोचने का विषय है।
– एडवोकेट रिया सिंह