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अगले जनम मोहे बिटिया न की जो राधिका का क्या कसूर

।।।।अगले जनम मोहे बिटिया न की जो।।।।
।।अंततः वो मारी गई।।
।। कसूर की वह बिटिया थी।।
"राधिका यादव की हत्या, जब बेटियाँ सफलता की सजा पाती हैं " आज सुबह जब टेलीविजन पर नज़र पड़ी तो यह दिल दहला देने वाली खबर मन को विचलित कर उठा ऐसा कैसे हो सकता है? तुम तो न कोख में सुरक्षित हो ना बाहर।
गुरुग्राम में 10 जुलाई 2025 को राज्य-स्तरीय टेनिस खिलाड़ी राधिका यादव की हत्या ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। इस घटना को और भयावह बना देता है यह तथ्य कि राधिका को किसी बाहरी हमलावर ने नहीं, बल्कि उसके अपने ही पिता ने गोली मारकर मौत के घाट उतार दिया। पुलिस द्वारा की गई प्रारंभिक जांच में सामने आया कि यह हत्या पारिवारिक तनाव, सामाजिक दबाव और एक पुरुष की टूटती सत्ता के परिणामस्वरूप हुई।
राधिका केवल एक खिलाड़ी नहीं थीं, वह एक युवा, आत्मनिर्भर और महत्वाकांक्षी महिला थीं जिन्होंने खुद की टेनिस अकादमी खड़ी की, सोशल मीडिया पर सक्रिय रहकर अपने करियर को नया विस्तार दिया। लेकिन यही आत्मनिर्भरता और सफलता उनके पिता दीपक यादव को बर्दाश्त नहीं हुई। गांव के ताने “बेटी की कमाई खा रहा है”दीपक के आत्म-सम्मान को बार-बार चुभते रहे। यह उन लाखों परिवारों की मानसिकता को उजागर करता है जहाँ बेटी की तरक्की परिवार के लिए गर्व का विषय बनने के बजाय शर्मिंदगी की वजह बन जाती है।
यह सिर्फ एक हत्या नहीं, बल्कि उस गहरी सामाजिक संरचना का आइना है जहाँ पुरुषवादी सोच अब भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पाती कि बेटी भी कंधे से कंधा मिलाकर चल सकती है, और कभी-कभी आगे भी निकल सकती है। बेटियों की जीत को अब भी नियंत्रण और शर्म की दृष्टि से देखा जाता है। अगर यही स्थिति किसी बेटे के साथ होती—वह सोशल मीडिया पर रील्स बना रहा होता, खुद की अकादमी चला रहा होता—तो शायद यह हत्या नहीं होती। यही भेदभाव समाज में पितृसत्ता की गहराई को दर्शाता है।

समाज बेटियों से 'मर्यादा' और 'शालीनता' की अपेक्षा करता है, लेकिन जब वे इन सीमाओं को पार कर अपनी शर्तों पर जीने लगती हैं, तो उनके लिए जगह नहीं बचती। उनके संघर्ष को समर्थन मिलने की जगह संदेह और तिरस्कार मिलता है। राधिका की हत्या उसी सामाजिक असहिष्णुता की पराकाष्ठा है, जहाँ बेटी की स्वतंत्रता पिता के अस्तित्व के लिए खतरा बन जाती है।

पुलिस की रिपोर्ट यह भी बताती है कि दीपक यादव लंबे समय से तनाव में थे। मानसिक रूप से टूटे हुए एक पुरुष को जब समाज बार-बार यह अहसास दिलाए कि वह "नकारा" हो गया है, तब वह अपनी ही बेटी को दुश्मन मानने लगता है। यह मानसिक बीमारी की शुरुआत है, जिसे हमारे समाज में आज भी नज़रअंदाज़ किया जाता है।

ऐसी घटनाएँ बार-बार यह सवाल उठाती हैं कि बेटियों को कब तक अपनी पहचान, स्वतंत्रता और सफलता की कीमत जान देकर चुकानी पड़ेगी? कब तक पिताओं की झूठी 'इज्जत' बेटियों की जान से बड़ी मानी जाएगी? और सबसे अहम सवाल—कब हम बेटियों की उड़ान को खुले दिल से स्वीकार करना सीखेंगे?

राधिका अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन उनकी कहानी हमें एक बार फिर सोचने पर मजबूर करती है कि हमारी सामाजिक संरचना कितनी असमान और खतरनाक हो चुकी है। हमें पितृसत्ता के इस जहर को पहचानना होगा, उसे तोड़ना होगा और बेटियों को जीने, बढ़ने और अपने सपनों को साकार करने का पूरा हक़ देना होगा।

राधिका की मौत एक खबर नहीं, एक चेतावनी है अगर हमने अब भी नहीं सीखा, तो अगली राधिका किसी और घर की होगी, किसी और पिता के हाथों मारी जाएगी।

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