
मुहर्रम: इस्लामी नववर्ष और शहादत का महीना
मुहर्रम: इस्लामी नववर्ष और शहादत का महीना
प्रस्तावना:
मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना होता है और यह मुसलमानों के लिए विशेष महत्व रखता है। यह महीना न सिर्फ इस्लामी नववर्ष की शुरुआत करता है, बल्कि करबला की ऐतिहासिक घटना और इमाम हुसैन (रज़ि.) की शहादत की याद में गम और मातम का महीना भी है।
मुहर्रम का धार्मिक महत्व:
मुहर्रम को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में गिना जाता है। इस महीने में युद्ध और हिंसा को हराम माना गया है। लेकिन इस महीने की सबसे खास बात है — 10वीं तारीख यानी "आशूरा", जो करबला की त्रासदी से जुड़ी हुई है।
करबला की घटना:
इस्लामी इतिहास में 10 मुहर्रम, 61 हिजरी (680 ईस्वी) को करबला (वर्तमान इराक) में पैग़म्बर मुहम्मद (स.अ.) के नवासे इमाम हुसैन (रज़ि.) और उनके परिवार के 72 साथियों को यज़ीद की फौज ने शहीद कर दिया। इमाम हुसैन ने अन्याय और ज़ुल्म के खिलाफ खड़े होकर सत्य, इंसाफ और धर्म की रक्षा के लिए जान कुर्बान कर दी।
मुहर्रम कैसे मनाया जाता है:
शिया मुस्लिम समुदाय मुहर्रम को गहरे दुख और मातम के साथ मनाता है। ताज़िए निकाले जाते हैं, मातमी जुलूस निकलते हैं, और "या हुसैन!" की सदा के साथ शहादत की याद ताज़ा की जाती है।
सुन्नी मुसलमान भी इस महीने को सम्मान के साथ मनाते हैं, और आशूरा के दिन रोज़ा रखते हैं क्योंकि यह दिन नबी मूसा (अ.) के फिरऔन से मुक्ति का दिन भी माना जाता है।
मुहर्रम का संदेश:
मुहर्रम हमें यह सिखाता है कि अन्याय के सामने सिर झुकाना गुनाह है। इमाम हुसैन की कुर्बानी हमें इंसाफ, सच्चाई, सब्र, और इंसानियत की राह पर चलने की प्रेरणा देती है। यह महीना त्याग, बलिदान और ईमानदारी का प्रतीक है।
उपसंहार:
मुहर्रम केवल एक धार्मिक अवसर नहीं, बल्कि यह एक ऐतिहासिक और नैतिक सबक भी है। इमाम हुसैन की शहादत हर मज़हब के लोगों को यह सिखाती है कि सत्य के लिए खड़ा होना चाहिए, चाहे इसकी कीमत जान ही क्यों न हो। आज की दुनिया में जब अन्याय और स्वार्थ बढ़ रहा है, मुहर्रम का यह पैग़ाम और भी अधिक प्रासंगिक हो जाता है।