
सूचना अधिकार अधिनियम 2005 आम जन का अधिकार या लोक सूचना अधिकारी के लिए समस्या ?
सूचना अधिकार अधिनियम 2005 को ठेंगे पर रखकर प्रशासन का खेल
कलम से – कमलेश्वर सिंह, जबलपुर (मध्य प्रदेश)
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005, जिसे आम नागरिक को पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित कराने के लिए बनाया गया था, आज अधिकारियों की मनमानी का सबसे बड़ा शिकार हो रहा है। भोपाल के सामान्य प्रशासन विभाग में पदस्थ एक सूचना अधिकारी ने हाल ही में एक आवेदन के जवाब में सरकारी दस्तावेजों को ही व्यक्तिगत दस्तावेज घोषित कर डाला।
यह कोई पहली घटना नहीं है। हर विभाग, हर कार्यालय में ऐसे उदाहरण भरे पड़े हैं जहाँ सूचना अधिकारी आरटीआई कानून को मजाक बनाकर रख देते हैं। जब भी किसी अधिकारी के कामकाज पर सवाल उठता है, पूरा तंत्र उसे बचाने में जुट जाता है। यह हालात लोकतंत्र की आत्मा के लिए एक गहरी चोट हैं।
क्या यह न्याय है?
क्या यह पारदर्शिता है?
क्या यही सुशासन का दावा है?
सूचना का अधिकार 2005 कोई एहसान नहीं, बल्कि संविधान से प्राप्त मौलिक अधिकारों की परिधि में आने वाला एक कानूनी हथियार है, जिसे जनता को सच्चाई जानने और व्यवस्था में जवाबदेही तय करने के लिए दिया गया। लेकिन जब संविधान की रक्षा का जिम्मा उठाने वाले अफसर ही इसे रद्दी की टोकरी में डाल दें, तो फिर संविधान और नागरिक अधिकारों का मूल्य ही क्या रह जाता है?
यह सवाल हर जागरूक नागरिक को खुद से पूछना होगा – क्या हम इस चुप्पी में सहभागी बन रहे हैं?
अब समय है कि जनता ऐसे रवैये के खिलाफ आवाज़ उठाए, शिकायत करे और जरूरत पड़े तो न्यायालय की चौखट तक पहुंचे।
क्योंकि अगर हम अब भी चुप रहे, तो आने वाली पीढ़ियां हमें कभी माफ नहीं करेंगी।