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क्या न्यायपालिका भी सरकार के दबाव में? OBC आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद उठे कई सवाल


वर्तमान हालातों को देखते हुए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अब न्यायपालिका भी सरकार की मंशा के अनुरूप निर्णय देती प्रतीत हो रही है।


आज के दैनिक भास्कर के प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित खबर इस बात की पुष्टि करती है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट द्वारा मध्य प्रदेश सरकार को यह स्पष्ट किया गया है कि 27% OBC आरक्षण देने में कोई आपत्ति नहीं है। यह निर्णय उस दिशा में पहले से ही तय लगता था, जिस ओर सरकार और सत्ताधारी वर्ग की मंशा थी।


परंतु बड़ा सवाल यह उठता है कि अगर यही करना था तो वर्ष 2019 से अब तक लाखों छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ क्यों किया गया? यह टालमटोल, यह कानूनी उलझनें और लंबित फैसले—क्या ये सब केवल राजनीतिक लाभ के लिए किए गए थे? क्या आरक्षण अब एक सामाजिक न्याय का उपकरण नहीं, बल्कि चुनावी लाभ का साधन बन गया है?


कई छात्रों की उम्र निकल गई, कई प्रयास अधूरे रह गए, और अस्थिरता के साए में उनके सपने बुझ गए।


अब इन वर्षों की क्षति की जवाबदेही किसकी है? क्या इसका कोई समाधान सरकार या न्यायपालिका के पास है?


इस पूरे घटनाक्रम ने एक और कटु सत्य उजागर किया है—कि अब सामान्य वर्ग के छात्रों को अपनी राह स्वयं तलाशनी होगी। उन्हें न तो सरकार की ओर से कोई ठोस सहारा मिलेगा, न न्यायपालिका से कोई अपेक्षित राहत।


अब समय आ गया है कि सामान्य वर्ग के लोग भी राजनीतिक रूप से सजग हों, और केवल जाति या अंधभक्ति के आधार पर किसी पार्टी को समर्थन देने से बचें।


वोट शक्ति केवल एक अधिकार नहीं, बल्कि भविष्य निर्माण का हथियार है—इसका प्रयोग विवेकपूर्ण ढंग से होना चाहिए।

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