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अठारह पापों की दुकान -अब तुम्हारी आत्मा हल्की है

“अठारह पापों की दुकान”
शहर के बीचोंबीच एक छोटी सी दुकान थी – “मन की दुकान”। यहाँ हर दिन तरह-तरह के लोग आते-जाते रहते थे। इस दुकान का मालिक था – अर्जुन। अर्जुन ने एक बोर्ड लगाया था – “यहाँ आत्मा को हल्का करने का सामान मिलता है।”

एक दिन, अर्जुन की दुकान में एक युवक आया – नाम था विवेक। वह परेशान था, बोला, “मेरे जीवन में बहुत दुख है, मन भारी रहता है। कुछ हल्का होने का उपाय बताइए।”

अर्जुन मुस्कराया और बोला, “तुम्हारे मन में अठारह बोझ हैं, इन्हें उतार दो, जीवन हल्का हो जाएगा।”

विवेक चौंका – “कैसे बोझ?”

अर्जुन ने समझाया:

“क्या तुम कभी किसी को चोट पहुँचाते हो?”

“कभी-कभी गुस्से में...”

“यह प्राणातिपात है।”

“कभी झूठ बोलते हो?”

“हाँ, काम निकालने के लिए।”

“यह मृषावाद है।”

“कभी बिना पूछे किसी की चीज़ ली?”

“बचपन में...”

“यह अदत्तादान है।”

“कभी बुरी आदतों में फँसे?”

“कभी-कभी।”

“यह मैथुन है।”

“कभी चीज़ों का लालच किया?”

“बहुत बार।”

“यह परिग्रह है।”

अर्जुन ने इसी तरह सभी 18 पापों के बारे में बताया – क्रोध, घमंड, कपट, लोभ, मोह, द्वेष, झगड़ा, झूठा आरोप, चुगली, निंदा, विषयों में आसक्ति, कपट सहित झूठ, और गलत विश्वास।

विवेक ने महसूस किया कि ये सभी बोझ उसके जीवन में हैं। अर्जुन बोला, “हर दिन इन बोझों में से एक को पहचानो और छोड़ने की कोशिश करो। देखना, तुम्हारा मन हल्का होता जाएगा।”

विवेक ने अर्जुन की बात मानी। उसने हर दिन एक-एक पाप छोड़ना शुरू किया। कुछ हफ्तों बाद वह फिर दुकान पर आया – चेहरे पर शांति थी।

अर्जुन मुस्कराया, “अब तुम्हारी आत्मा हल्की है। यही जैन धर्म का संदेश है – अठारह पापों को छोड़ो, जीवन को शुद्ध बनाओ।”

इस तरह अर्जुन की “मन की दुकान” हर किसी को सिखाती रही – पापों का त्याग ही असली हल्कापन है।

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