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महर्षि पतंजलि: भारतीय ज्ञान परंपरा के देदीप्यमान नक्षत्र


महर्षि पतंजलि: भारतीय ज्ञान परंपरा के देदीप्यमान नक्षत्र



भूमिका

भारतीय दर्शन के क्षितिज पर महर्षि पतंजलि एक ऐसे दीप्तिमान नक्षत्र हैं जिनकी आभा आज भी विश्व को आलोकित कर रही है। वे न केवल योगदर्शन के जनक माने जाते हैं, बल्कि व्याकरण और आयुर्वेद जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भी उनका योगदान अतुलनीय है। उनके द्वारा रचित "योगसूत्र" भारतीय ज्ञान परंपरा की अमूल्य धरोहर है, जो आज भी विश्वभर में योग के सिद्धांतों और अनुशासन का मूल स्रोत बना हुआ है। पतंजलि का कार्य केवल अकादमिक नहीं था; यह मानव अस्तित्व के गूढ़ रहस्यों, चेतना की गहराइयों और समग्र स्वास्थ्य की प्राप्ति के व्यावहारिक पथ प्रदर्शन का एक गहन अन्वेषण था। उनकी त्रिवेणी – योग, व्याकरण और आयुर्वेद – मानव जीवन के शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक आयामों को एक साथ संबोधित करती है, जो उनकी दूरदर्शिता और बहुज्ञता का प्रमाण है।

पतंजलि का जीवन परिचय: काल और किंवदंतियाँ

महर्षि पतंजलि के जीवन और कालखंड को लेकर विद्वानों में मतभेद और कई अनुत्तरित प्रश्न हैं, जो उनके व्यक्तित्व को और भी रहस्यमय बनाते हैं।

काल निर्धारण:

पतंजलि का काल निर्धारण भारतीय इतिहास के सबसे पेचीदा विषयों में से एक है। विभिन्न ऐतिहासिक और भाषाई विश्लेषणों के आधार पर विद्वानों ने कई मत प्रस्तुत किए हैं:

150 ईसा पूर्व: यह मत सबसे अधिक प्रचलित और स्वीकार्य है। इसके अनुसार, पतंजलि ने पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल (लगभग 185-149 ईसा पूर्व) के दौरान "महाभाष्य" की रचना की थी। महाभाष्य में कुछ ऐसे ऐतिहासिक संदर्भ मिलते हैं जो इस कालखंड की पुष्टि करते हैं।

500 ईसा पूर्व से 200 ईसा पूर्व के मध्य: कुछ विद्वान उन्हें पाणिनि (संभवतः 5वीं-4थी शताब्दी ईसा पूर्व) के निकट मानते हैं, यह तर्क देते हुए कि महाभाष्य पाणिनि के व्याकरण पर एक मूलभूत टिप्पणी है। हालांकि, यह मत कम स्वीकार्य है।

अन्य संभावित तिथियाँ: कुछ परंपराएँ उन्हें बहुत प्राचीन, यहाँ तक कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी से भी पहले का मानती हैं, जबकि कुछ अन्य उन्हें बाद के काल में रखती हैं। यह विसंगति भारतीय इतिहासलेखन की प्राचीन पद्धति और मौखिक परंपराओं के कारण है।


जन्मस्थान:

पतंजलि के जन्मस्थल को लेकर भी कोई निश्चित प्रमाण उपलब्ध नहीं है। विभिन्न प्राचीन ग्रंथों और किंवदंतियों में निम्नलिखित स्थानों का उल्लेख मिलता है:


गोणर्द: यह स्थान उत्तर प्रदेश में गोंडा के निकट माना जाता है। इस क्षेत्र में पतंजलि से जुड़ी कई किंवदंतियाँ और स्थानीय परंपराएँ प्रचलित हैं।

पाटलिपुत्र: कुछ स्रोतों में पाटलिपुत्र (आधुनिक पटना) का उल्लेख भी मिलता है, जो प्राचीन काल में शिक्षा और संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र था।


तक्षशिला: कुछ विद्वानों का मानना है कि वे तक्षशिला जैसे प्राचीन विद्या केंद्रों से भी जुड़े हो सकते हैं।

यह अनिश्चितता उनके जीवन को रहस्य के आवरण से ढँके रखती है, लेकिन उनके कार्यों की महत्ता पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

पौराणिक मान्यता:

भारतीय पौराणिक कथाओं में महर्षि पतंजलि को भगवान विष्णु के शेषनाग अवतार के रूप में माना जाता है, जिन्होंने पृथ्वी पर ज्ञान के प्रसार के लिए मानव रूप धारण किया। एक प्रसिद्ध मान्यता के अनुसार, जब भगवान विष्णु शेषशैया पर शयन कर रहे थे, तब उन्होंने शिव के तांडव नृत्य को देखा और उसमें लीन हो गए। इस दौरान, उनके शरीर से एक छोटे शेषनाग का अंश नीचे गिरा, जो धरती पर पतंजलि के रूप में अवतरित हुआ। यह किंवदंती उनकी अगाध ज्ञान, दिव्य दृष्टि और मानव कल्याण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाती है। यह भी माना जाता है कि उन्होंने स्वयं को एक भक्तनी की प्रार्थना के जवाब में प्रकट किया था, जब उसने ईश्वर से ऐसे ज्ञानी के रूप में अवतरित होने का आग्रह किया था जो मानव जाति को शारीरिक और आध्यात्मिक दोनों विकारों से मुक्ति दिला सके।

महर्षि पतंजलि का बहुविध योगदान: त्रिकालदर्शी ज्ञान
महर्षि पतंजलि को तीन मुख्य और अत्यंत गहन क्षेत्रों में उनके मौलिक योगदान के लिए भारतीय परंपरा में ‘त्रिविध विद्या के आचार्य’ के रूप में सम्मानित किया जाता है: योग दर्शन, संस्कृत व्याकरण और आयुर्वेद।

योग दर्शन (Yoga Shastra)

पतंजलि का सबसे प्रसिद्ध और स्थायी योगदान उनका योगसूत्र है, जो योग के सिद्धांतों का एक व्यवस्थित और वैज्ञानिक प्रस्तुतिकरण है।

योगसूत्र:

यह ग्रंथ योग के दर्शन, मनोविज्ञान और साधना को अत्यंत संक्षिप्त और सुगठित सूत्रों के माध्यम से प्रस्तुत करता है।

सूत्रों की कुल संख्या: पारंपरिक रूप से इसमें 195 या 196 सूत्र माने जाते हैं, जो अत्यंत संक्षिप्तता के साथ गहरे अर्थों को समाहित करते हैं।

दार्शनिक आधार: यह ग्रंथ सांख्य दर्शन के सिद्धांतों पर आधारित है, लेकिन यह सांख्य के 'पुरुष' (चेतना) और 'प्रकृति' (भौतिक जगत) के द्वैतवाद से आगे बढ़कर 'ईश्वर' की अवधारणा को भी स्वीकार करता है, जो सांख्य में नहीं है। योगसूत्र का मुख्य उद्देश्य चित्त (मन) को स्थिर कर मुक्ति या कैवल्य प्राप्त करना है।

वैज्ञानिक पद्धति: पतंजलि ने योग को एक अनुभवजन्य और व्यवस्थित विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया, जिसमें मानसिक प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए स्पष्ट चरण और तकनीकें बताई गईं।

योग की परिभाषा:

योगसूत्र का सबसे प्रसिद्ध और मूल सूत्र है:

“योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः”

(योग चित्त की वृत्तियों [मानसिक गतिविधियों] का निरोध है।)
यह परिभाषा योग के लक्ष्य को स्पष्ट करती है – मन की अशांत लहरों को शांत कर, चेतना को उसके शुद्ध, शांत स्वरूप में स्थापित करना।

योगसूत्र के चार पाद:

योगसूत्र को चार मुख्य अध्यायों या 'पादों' में विभाजित किया गया है, जो योग के विभिन्न पहलुओं को क्रमबद्ध तरीके से समझाते हैं:


समाधिपाद: यह योग की प्रकृति, उसके लक्ष्य और विभिन्न प्रकार की समाधि अवस्थाओं का वर्णन करता है। इसमें योग के उद्देश्यों, ईश्वर की अवधारणा और अभ्यास व वैराग्य के महत्व पर चर्चा की गई है।

साधनपाद: यह योग के अभ्यास के लिए व्यावहारिक साधनों को प्रस्तुत करता है, विशेषकर क्रिया योग (तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान) और अष्टांग योग के शुरुआती पाँच अंगों (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार) का विस्तृत वर्णन करता है।

विभूतिपाद: यह योग के उन्नत चरणों और उनके परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली सिद्धियों (विभूतियों) का वर्णन करता है। इसमें धारणा, ध्यान और समाधि (संयम) के एकीकरण से प्राप्त होने वाली विभिन्न अलौकिक शक्तियों और उनके प्रति वैराग्य के महत्व पर जोर दिया गया है।

कैवल्यपाद: यह योग के अंतिम लक्ष्य – मोक्ष या कैवल्य – की व्याख्या करता है। यह आत्मा की स्वतंत्रता, प्रकृति से उसके पूर्ण विच्छेद और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति की अवस्था को समझाता है।

अष्टांग योग (Eightfold Path of Yoga):
योगसूत्र का हृदय अष्टांग योग है, जो आत्म-साक्षात्कार के लिए एक आठ-गुणी पथ है:

यम: सामाजिक आचार-संहिता: अहिंसा (अहिंसा), सत्य (सत्यवादिता), अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (संयम), अपरिग्रह (अनावश्यक संग्रह न करना)।

नियम: व्यक्तिगत आचार-संहिता:
शौच (पवित्रता), संतोष (संतुष्टि), तप (आत्म-अनुशासन), स्वाध्याय (आत्म-अध्ययन/शास्त्र अध्ययन), ईश्वरप्रणिधान (ईश्वर के प्रति समर्पण)।

आसन: शरीर की स्थिर और सुखद स्थिति, जो ध्यान के लिए स्थिरता प्रदान करती है। यह केवल शारीरिक व्यायाम नहीं, बल्कि स्थिरता और सहजता का प्रतीक है।

प्राणायाम: श्वास का संयम और नियंत्रण, जिससे प्राण ऊर्जा को नियंत्रित किया जाता है और मन को शांत किया जाता है।

प्रत्याहार: इंद्रियों को बाहरी विषयों से हटाकर अंतर्मुखी करना, जिससे मन को भटकने से रोका जा सके।

धारणा: मन को किसी एक बिंदु या वस्तु पर एकाग्र करना। यह एकाग्रता की प्रारंभिक अवस्था है।

ध्यान: किसी एक विषय पर निरंतर और अबाधित मनोवृत्ति। यह धारणा की निरंतरता है।

समाधि: पूर्ण तल्लीनता की अवस्था, जिसमें ध्याता (ध्यान करने वाला), ध्येय (जिस पर ध्यान किया जा रहा है) और ध्यान (ध्यान की प्रक्रिया) एकाकार हो जाते हैं, जिससे ब्रह्मानुभूति या आत्म-साक्षात्कार होता है।

संस्कृत व्याकरण (Vyakarana)

महर्षि पतंजलि का दूसरा महान योगदान संस्कृत व्याकरण के क्षेत्र में है। उन्होंने पाणिनि के अष्टाध्यायी (लगभग 5वीं-4थी शताब्दी ईसा पूर्व) और कात्यायन के वार्तिकों (लगभग 300 ईसा पूर्व) पर "महाभाष्य" नामक एक विशाल और गहन भाष्य की रचना की।

महाभाष्य (Mahabhashya):

मूलभूत ग्रंथ: यह संस्कृत व्याकरण का न केवल एक मौलिक ग्रंथ है, बल्कि पाणिनीय व्याकरण को समझने का आधारग्रंथ भी है। यह "मुनित्रय" (पाणिनि, कात्यायन, पतंजलि) में से अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है।

व्याकरण का विश्लेषण: महाभाष्य में पतंजलि ने व्याकरण के नियमों को केवल भाषाई दृष्टिकोण से ही नहीं, बल्कि दार्शनिक और तर्कशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी अत्यंत गहनता से विश्लेषित किया है। उन्होंने हजारों सूत्रों पर विस्तृत चर्चा की है, उनके अर्थों को स्पष्ट किया है, और संभावित आपत्तियों का खंडन किया है।

विशेषता: पतंजलि का दृष्टिकोण केवल भाषाई नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और दार्शनिक भी था। उन्होंने भाषा को केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि ज्ञान और चेतना की अभिव्यक्ति का साधन माना। महाभाष्य केवल व्याकरणिक नियमों का संग्रह नहीं है; यह भारतीय तर्कशास्त्र, मीमांसा और दर्शन का एक महत्वपूर्ण स्रोत भी है। इसमें तत्कालीन समाज, संस्कृति और शिक्षा प्रणाली के बारे में भी महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि मिलती है।

आयुर्वेद (Ayurveda)

पतंजलि को आयुर्वेदाचार्य भी माना गया है। हालांकि इस क्षेत्र में उनके योगदान के प्रत्यक्ष ग्रंथ अब उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन मौखिक परंपरा और कुछ प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख मिलता है।

पतंजलि तंत्र (Patanjali Tantra):

माना जाता है कि उन्होंने "पतंजलि तंत्र" नामक एक ग्रंथ की रचना की थी, जो आयुर्वेद के मार्मिक विषयों पर आधारित था, जिसमें मानसिक रोग, स्नायु रोग और योग चिकित्सा का गहन अध्ययन शामिल था। दुर्भाग्य से, यह ग्रंथ अब दुर्लभ या पूर्णतः लुप्त हो चुका है।

योग और आयुर्वेद का समन्वय:

पतंजलि ने योग और आयुर्वेद के बीच एक गहरा समन्वय स्थापित किया। उन्होंने माना कि "रोगमूलं मनः" – अर्थात अधिकांश शारीरिक और मानसिक रोगों की जड़ मन में होती है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मन की अशुद्धियाँ और अशांति ही शरीर में रोगों का कारण बनती हैं।

योग का योगदान: योग के माध्यम से मन का शुद्धिकरण, भावनात्मक संतुलन और ऊर्जा का नियमन संभव है, जिससे शारीरिक स्वास्थ्य को लाभ मिलता है।

आयुर्वेद का योगदान: आयुर्वेद, शरीर के दोषों (वात, पित्त, कफ) को संतुलित करके और औषधीय उपचारों के माध्यम से शारीरिक आरोग्य प्रदान करता है।

इस प्रकार, पतंजलि का दृष्टिकोण समग्र स्वास्थ्य की संकल्पना पर आधारित था, जहाँ मन और शरीर को अविभाज्य माना गया। वे योग को मानसिक स्वास्थ्य और आयुर्वेद को शारीरिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक मानते थे, दोनों का संयोजन ही पूर्ण आरोग्य प्रदान करता है।

महर्षि पतंजलि की विशेषताएँ: एक अद्वितीय प्रतिभा

महर्षि पतंजलि का व्यक्तित्व और कृतित्व कई अद्वितीय विशेषताओं से परिपूर्ण है, जो उन्हें भारतीय इतिहास के महानतम ऋषियों में से एक बनाते हैं:

बहुज्ञता (Polymathy): वे योग, व्याकरण और आयुर्वेद जैसे तीन अत्यंत जटिल, गहन और भिन्न विषयों के शीर्षस्थ ज्ञाता थे। यह उनकी असाधारण बौद्धिक क्षमता और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी गहरी पैठ का प्रमाण है।

सूत्र शैली (Sutra Style): उन्होंने अपने ज्ञान को अत्यंत संक्षिप्त, सारगर्भित और प्रभावशाली सूत्रों में समाहित किया। सूत्र शैली भारतीय ज्ञान परंपरा की एक विशेषता है, जिसका उद्देश्य कम से कम शब्दों में अधिकतम अर्थ व्यक्त करना है। पतंजलि के सूत्र न केवल ज्ञानात्मक हैं बल्कि अत्यंत व्यवस्थित और तार्किक भी हैं।

विज्ञान व दर्शन का समन्वय: पतंजलि ने भाव और बुद्धि, दर्शन और तर्क, साधना और विज्ञान को एक सूत्र में पिरोया। उनके योगसूत्र में मनोग्रंथि, चेतना के स्तरों और मानसिक प्रक्रियाओं का वैज्ञानिक विश्लेषण मिलता है, जिसे आध्यात्मिक लक्ष्य – कैवल्य – के साथ जोड़ा गया है।

सार्वकालिकता (Timeless Relevance): पतंजलि के योगसूत्र आज भी न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व में योग साधकों का मूल आधार बने हुए हैं। उनके सिद्धांत और अभ्यास हजारों वर्षों बाद भी उतने ही प्रासंगिक और प्रभावी हैं, जितने वे अपने समय में थे। यह उनकी कृतियों की सार्वभौमिकता और कालातीत प्रकृति का प्रमाण है।

महर्षि पतंजलि की वैश्विक महत्ता: योग का वैश्विक प्रसार
महर्षि पतंजलि की शिक्षाओं की वैश्विक स्वीकार्यता और महत्ता आज अभूतपूर्व है।

अंतरराष्ट्रीय योग दिवस: संयुक्त राष्ट्र द्वारा 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया जाना पतंजलि की विश्वव्यापी स्वीकार्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। यह दिवस उनके द्वारा प्रतिपादित योग के सिद्धांतों को वैश्विक मंच पर मान्यता देता है।

वैश्विक प्रसार: पश्चिमी देशों में "योगसूत्र" का अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, जापानी और अन्य कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है, जिसने योग को एक विश्वव्यापी घटना बना दिया है। दुनिया भर के योग स्कूल और गुरु पतंजलि के योगसूत्र को अपने शिक्षण का आधार मानते हैं।

भारत में संस्थागत प्रोत्साहन: भारत में मोरारजी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान, पतंजलि योगपीठ, केंद्रीय आयुष मंत्रालय और अन्य कई संस्थाएं महर्षि पतंजलि के योगदर्शन को प्रचारित, प्रसारित और शोधित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। ये संस्थान योग को एक स्वस्थ जीवन शैली और समग्र कल्याण के लिए एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में बढ़ावा देते हैं।

निष्कर्ष

महर्षि पतंजलि ने मानव जीवन को तन, मन और आत्मा के त्रिकोण में संतुलन स्थापित करने की विधि दी। उनका दर्शन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना सहस्त्रों वर्ष पूर्व था। उन्होंने केवल सिद्धांत नहीं दिए, बल्कि एक ऐसा मार्गदर्शन किया जिससे साधक स्वयं अपने जीवन को रूपांतरित कर सकता है। उनके योगसूत्र आधुनिक मनोविज्ञान और न्यूरोसाइंस के कई सिद्धांतों के साथ आश्चर्यजनक रूप से संरेखित होते हैं, जो उनकी गहन अंतर्दृष्टि और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को दर्शाता है।

उनकी वाणी, उनका ज्ञान और उनका तप भारत की आध्यात्मिक परंपरा के स्तंभ हैं। वे हमें सिखाते हैं कि आंतरिक शांति और मुक्ति की यात्रा आत्म-अनुशासन, ज्ञान और समर्पण से ही संभव है।

वे न केवल ऋषि थे, बल्कि मानव चेतना के महाकवि थे, जिनकी रचनाएं शाश्वत हैं और आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरणा देती रहेंगी। पतंजलि का कार्य केवल योग तक सीमित नहीं है; यह मानव अस्तित्व की समग्रता, भाषा की शक्ति और स्वास्थ्य के गहरे अर्थों का एक कालातीत अन्वेषण है।

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