
क्रांतिकारी गणेश घोष: एक अविस्मरणीय गाथा(22 जून 1900- 16 अक्टूबर 1994)
भूमिका
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में, जहाँ महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन ने एक विशेष स्थान बनाया, वहीं अनेक ऐसे वीर भी थे जिन्होंने सशस्त्र क्रांति के माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत की नींव हिला दी। ऐसे ही निडर और समर्पित क्रांतिकारियों में से एक थे गणेश घोष। चटगांव शस्त्रागार लूट कांड के प्रमुख नायकों में से एक, उनका जीवन साहस, बलिदान और भारत की स्वतंत्रता के प्रति अटूट निष्ठा का प्रतीक है।
प्रारंभिक जीवन और राष्ट्रवादी चेतना का उदय
गणेश घोष का जन्म 22 जून 1900 को अविभाजित भारत के चटगांव (जो अब बांग्लादेश में है) में एक मध्यमवर्गीय बंगाली हिंदू परिवार में हुआ था। बचपन से ही उन्हें राष्ट्रवादी विचारों का वातावरण मिला, जिसने उनके भीतर देश प्रेम की भावना को गहरा किया। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा चटगांव में प्राप्त की और फिर उच्च शिक्षा के लिए कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) चले गए। यही वह समय था जब कलकत्ता में चल रही तीव्र राजनीतिक और क्रांतिकारी गतिविधियों ने उनके युवा मन पर गहरा प्रभाव डाला। वे जल्द ही ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संगठित हो रहे गुप्त क्रांतिकारी संगठनों की ओर आकर्षित हुए।
क्रांतिकारी गतिविधियों की शुरुआत
युवावस्था में गणेश घोष पहले अनुशीलन समिति और बाद में जुगांतर दल जैसे प्रमुख क्रांतिकारी संगठनों से जुड़े। इन संगठनों का एकमात्र लक्ष्य ब्रिटिश साम्राज्य को भारत से उखाड़ फेंकना और देश को पूर्ण स्वतंत्रता दिलाना था। उनकी मुलाकात उस समय के एक महान क्रांतिकारी सूर्य सेन से हुई, जिन्हें 'मास्टर दा' के नाम से जाना जाता था। गणेश घोष मास्टर दा के करिश्माई नेतृत्व और दूरदर्शिता से बहुत प्रभावित हुए और उनके सबसे विश्वसनीय साथियों में से एक बन गए। उन्होंने सूर्य सेन के मार्गदर्शन में ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध एक बड़े सशस्त्र विद्रोह की योजना में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू किया, जिसकी परिणति चटगांव शस्त्रागार लूट के रूप में हुई।
चटगांव शस्त्रागार लूट (1930): एक ऐतिहासिक विद्रोह
18 अप्रैल 1930 को गणेश घोष ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की सबसे साहसिक और संगठित सशस्त्र कार्रवाइयों में से एक में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई – चटगांव शस्त्रागार लूट। यह अभियान सूर्य सेन के नेतृत्व में अंजाम दिया गया था और इसका उद्देश्य ब्रिटिश सेना के अस्त्र-शस्त्रों को लूटकर उन्हें ब्रिटिश शासन के विरुद्ध इस्तेमाल करना था।
इस योजना के तहत, क्रांतिकारियों की टोलियों ने एक साथ चटगांव के दो मुख्य शस्त्रागारों – पुलिस आर्मरी और सहायक बल आर्मरी – पर धावा बोल दिया। गणेश घोष इस आक्रमण में मुख्य क्रांतिकारियों में से एक थे और उन्होंने अपनी टीम का नेतृत्व करते हुए शस्त्रागारों पर कब्जा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने और उनके साथियों ने शस्त्रागारों से राइफलें और मशीनगनें लूटीं, हालांकि उन्हें गोला-बारूद नहीं मिल पाया। इस अभियान के दौरान, क्रांतिकारियों ने चतुराई से रेलवे लाइनों और टेलीफोन तथा टेलीग्राम लाइनों को काटकर चटगांव को बाहरी दुनिया से अलग कर दिया, जिससे ब्रिटिश प्रशासन पूरी तरह पंगु हो गया।
चटगांव शस्त्रागार लूट केवल हथियारों की चोरी नहीं थी, बल्कि यह ब्रिटिश साम्राज्य के लिए एक स्पष्ट संदेश था कि भारतीय अब अपनी स्वतंत्रता के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। इस घटना ने पूरे देश में एक नई स्फूर्ति और जोश भर दिया और अंग्रेजों के दिलों में भय पैदा करने में सफल रहा।
गिरफ्तारी, कारावास और अटूट संघर्ष
चटगांव शस्त्रागार लूट के पश्चात, ब्रिटिश सरकार ने क्रांतिकारियों के विरुद्ध एक बड़ा अभियान चलाया। कई क्रांतिकारी या तो गिरफ्तार कर लिए गए या मुठभेड़ों में मारे गए। गणेश घोष भी आखिरकार ब्रिटिश पुलिस के हाथ लग गए। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कुख्यात काला पानी (अंडमान की सेलुलर जेल) भेज दिया गया, जहाँ ब्रिटिश राजनैतिक कैदियों को अमानवीय परिस्थितियों में रखा जाता था।
सेलुलर जेल में गणेश घोष ने वर्षों की कठोर यातनाएं झेलीं। वहां के कष्टप्रद जीवन, भूख हड़तालों और अंग्रेजों के अमानवीय व्यवहार के बावजूद, स्वतंत्रता के प्रति उनकी आस्था कभी डगमगाई नहीं। उन्होंने जेल के भीतर भी कैदियों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और अपने साथियों के साथ एकजुटता बनाए रखी। उनका यह कारावास का काल उनके धैर्य, दृढ़ संकल्प और देश के प्रति अदम्य प्रेम का प्रमाण है।
स्वतंत्रता के बाद का जीवन: समाजवादी राजनीतिज्ञ
लंबे कारावास के बाद, गणेश घोष रिहा हुए और स्वतंत्र भारत में उन्होंने एक नई राह चुनी – समाजवादी राजनीति की राह। उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) में शामिल होकर सक्रिय रूप से राजनीतिक और सामाजिक कार्यों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। वे मानते थे कि देश की सच्ची स्वतंत्रता तभी हासिल की जा सकती है जब समाज में समानता और न्याय स्थापित हो।
उनकी राजनीतिक यात्रा बेहद सफल रही। 1951 में, वे पश्चिम बंगाल विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए, जहाँ उन्होंने जनता के मुद्दों को प्रभावी ढंग से उठाया। इसके बाद, 1957 में, वे कलकत्ता दक्षिण निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने गए और एक सांसद के रूप में राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दिया। संसद में रहते हुए उन्होंने मजदूरों, किसानों और वंचितों के अधिकारों के लिए आवाज उठाई।
निधन और अविस्मरणीय विरासत
गणेश घोष का निधन 16 अक्टूबर 1994 को हुआ। उनका जीवन लगभग पूरे 20वीं सदी के भारतीय इतिहास को समेटे हुए था – एक सच्चा क्रांतिकारी, एक सिद्धांतनिष्ठ राजनीतिज्ञ और एक अनुशासित कार्यकर्ता।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गणेश घोष का नाम दृढ़ता, साहस और अनुशासन का प्रतीक बन चुका है। उनका योगदान केवल सशस्त्र विद्रोह तक सीमित नहीं रहा, बल्कि स्वतंत्र भारत में जनतांत्रिक राजनीति की स्थापना और सामाजिक न्याय के लिए भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पश्चिम बंगाल और राष्ट्र की राजनीति में उनके योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। उनकी विरासत आज भी युवा पीढ़ी को प्रेरणा देती है कि देश और समाज के प्रति समर्पण ही सबसे बड़ा धर्म है।
उपसंहार
गणेश घोष का जीवन एक आदर्श क्रांतिकारी और उत्तरदायी नागरिक का जीवन था। उन्होंने अपने युवाकाल को भारत की स्वतंत्रता के लिए जेल की कालकोठरी में बिताया और आज़ादी के बाद राष्ट्र निर्माण में अपने अनुभवों और आदर्शों का प्रयोग किया। उनका जीवन यह सिखाता है कि बलिदान ही आज़ादी की असली कीमत है और यह भी कि क्रांति का मार्ग केवल सशस्त्र संघर्ष तक सीमित नहीं होता, बल्कि स्वतंत्रता के बाद एक मजबूत और न्यायपूर्ण समाज के निर्माण में भी इसका महत्वपूर्ण योगदान होता है। उनकी स्मृति आज भी देशभक्तों को प्रेरणा देती है कि राष्ट्र सेवा के लिए आजीवन समर्पण आवश्यक है।