
नदियों के तथा पर्वतों के दो शरीर
*नदियों तथा पर्वतों के दो-दो शरीर* 🏞🌏
नद्यश्च पर्वताः सर्वे द्विरूपाश्च स्वभावतः ।
तोयं नदीनां रूपं तु शरीरमपरं तथा ॥
स्थावरः पर्वतानां तु रूपं कायस्तथापरः ।
शुक्तीनामथ कम्बूनां यथैवान्तर्गता तनुः ॥
बहिरस्ति स्वरूपं तु सर्वदैव प्रवर्तते ।
एवं जलं स्थावरस्तु नदीपर्वतयोस्तदा।
अन्तर्वसति कायस्तु सततं नोपपद्यते ॥
आप्याय्यते स्थावरेण शरीरं पर्वतस्य तु।
तथा नदीनां कायस्तु तोयेनाप्याय्यते सदा ॥
नदीनां कामरूपित्वं पर्वतानां तथैव च।
जगत्स्थित्यै पुरा विष्णुः कल्पयामास यत्नतः ॥
तोयहानौ नदीदुःखं जायते सततं सुराः।
विशीर्णे स्थावरे दुःखे जायते गिरिकायजम् ॥
(कालिकापुराण २२।११-१७)
नदियाँ और पर्वत- ये दोनों ही दो-दो शरीर (स्थावरकाय तथा जलकाय और दो अन्तः काय) धारण करते हैं। जैसे सीपी अथवा शंख का बाहरी तथा भीतरी खोल या देह होता है, वैसे ही नदियों-पर्वतों के भी दो देह होते हैं। पर्वतों और नदियोंका जो अन्तःकाय (भीतर का शरीर) होता है, वह इनके स्थावरकाय, जलकाय (बाहरी शरीर)- से पोषण प्राप्त करता है। शिलाएँ पहाड़ों का और जल नदियों का बाहरी शरीर है, जिनके द्वारा उनका अन्तःकाय संवर्धित होता रहता है।
अतएव यदि नदीके जल की किसी प्रकार से हानि अथवा उसका अप्राकृतिक उपयोग किया जाता है, तो नदी पीड़ित होने लगती है और ऐसे ही पहाड़ों में यदि तोड़-फोड़, खनन आदि अप्राकृतिक तरीके से किया जाता है, तो इससे पहाड़ों को भारी दुःख होता है। नदियों-पर्वतों के स्वेच्छाप्रेरित प्राकृतिक व्यवहार का यह यत्नसाध्य प्रबन्ध भगवान् श्रीहरि ने पूर्वकाल में संसार के पोषण-रक्षणहेतु किया था।