
मानव विचार में संकिर्णता
अधिकांश मानव में सर नेम के पहले नाम लिखते हैं। लेकिन सभा हो या विद्यालय संबोधन करने की लत गलत लगने लगा है। जो समाज में विषमता को प्रोत्साहित करता है, यथा नाम को गौन कर उपनाम से संबोधन की रित बढ़ता जा रहा है। प्रणाम, नमस्कार,जी, बाबू शब्द की धज्जियां उड़ाई जा रही है। किसे किस शब्द से संबोधन किया जाय, उस शब्द में दरिद्रता आ गया है। जिससे अच्छे लोग भी अपने सम्मान में कमी अनुभव करता है। लेकिन उसका विरोध करे तो कैसे करें। इसी तरह की शिक्षा से उत्तीर्ण अभ्यार्थी है।बचनम् कीं दरिद्ररम् ज्ञान आजादी के 78 वीं वर्ष बाद भी अमल नहीं होना चिंता की बात है। भारत वर्ष की सामाजिक व्यवस्था हजारों वर्ष से हिन्दू धर्म पर आधारित है हिन्दू धर्म के पर्यायवाची शब्द की पुस्तकों में शुद्रो के लिए षडयंत्रपूर्ण भयानक लिखित व्यवस्था है। जिनके अनेकों उदाहरण देखने को मिलता है।
हिन्दू धर्मावलंबी जनता जातियों और उपजातियां में विभक्त है । कुछ जातियों को अधिक अधिकार, सम्मान, सुरक्षा,सुख सुविधा प्रदान कियेगये हैं इसके विपरित कुछ जातियों में अधिक से अधिक असम्मान, असुरक्षा, कष्ट, तिरस्कार एवं असुविधा देने की व्यवस्था की गई है । ब्राह्मण का नाम मंगलमय, क्षत्रिय का नाम शक्तिमय, वैश्य का नाम धनमय शुद्र को बेढंगे नाम देखा जा रहा है। द्विजाति को प्रथम सवर्णो से विवाह करना उचित है। केवल कामवासना शांत करनी हो तो निम्न जाति की स्त्रियां भी ग्राह्य है। धार्मिक पुस्तकों आधार पर धार्मिक प्रवृत्ति वाले लोगों को शुद्र के राज्य में कभी नहीं रहना चाहिए। स्पष्ट है उस समय में भी शुद्र राजा हुआ करते थे। द्विजाति का जूठा शुद्र को खाना धर्मानुकूल है।राजा के सलाहकार विशेष जाति के ही होंगे, शुद्र नहीं हो सकता। विद्वान शुद्र को भी सम्मान का अधिकार हमारे धर्मग्रंथों में वर्जित है। हमारे धर्मग्रंथों में न्याय करने का अधिकार से शुद्र को संचित रखा गया है। हिन्दू धर्म में निम्न जाति को निर्धन बनाने की व्यवस्था है ।धन सम्पन्न शुद्र नहीं रह सकता। शुद्र की सम्पत्ति का मालिक एक विशेष वर्ग के स्वामी है न कि शुद्र। शुद्र के लिए धर्म में न संस्कार न अधिकार है। द्विजाति का सेवा करना शुद्र का धर्म है । हिन्दू धर्म की किताबों में अछुतों के विरुद्ध कहीं गई सम्पूर्ण बातें को संकलित किया जाय तो महाभारत से भी बड़ी किताब होगी। मैं दो चार शब्द पुस्तकों से ली है। आजादी के बाद भी हर वर्ग के मानव ,वे शुद्र और दलित ही क्यों न हो उसे कायम रखना चाहता है। साथ साथ विशेष जाति के लोग भी इस व्यवस्था को खत्म करना चाहता है। मानव धर्म के अनुयाई और अअनुयाई हर बर्ण में है।जो सुरसा मूंह की भांति बढ़ता ही जा रहा है। उस पर चिंतन मनन होनी चाहिए।धर्म जजों भी हो साम में मानवता भी अपनाना
चाहिए। मानवता की क्या पहचान, ऊंच-नीच सब एक समान ।इस विचार से किसी की भावना आहत हो तो क्षमा चाहता हूं।