
जाति और सरनेम समाप्ति की अपील: आत्म-सम्मान का संघर्ष
संवाददाता: जागेश्वर मोची, मधुबनी
"आत्म-सम्मान और स्वाभिमान से जीना विश्व के प्रत्येक नागरिक का जन्मसिद्ध अधिकार है। किंतु जाति और सरनेम (उपनाम) की सामाजिक व्यवस्था हमें इस अधिकार से वंचित कर देती है। यह व्यवस्थाएं हमें बांटती हैं, हमारी पहचान को सामाजिक दर्जे में तोलती हैं, और समानता के संवैधानिक सिद्धांतों का अपमान करती हैं।"
उक्त विचार सामाजिक समानता और जाति-विहीन समाज की दिशा में एक प्रखर प्रयास हैं। मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूं कि यदि जाति और सरनेम को समाप्त करने की दिशा में संघर्ष करना अपराध की श्रेणी में आता है, तो मैं यह अपराध करने को तैयार हूं। यदि यह संविधान के विरुद्ध है, तो मैं इसकी सजा भुगतने को भी तैयार हूं।
हमारे प्राचीन धर्मग्रंथों में किसी ऋषि, मुनि या भगवान के नाम के साथ कोई सरनेम नहीं जोड़ा गया है — यथा: राम, कृष्ण, परशुराम, अर्जुन, भीम, परमहंस, विवेकानंद, गौतम बुद्ध, पेरियार, महात्मा फुले, डॉ. भीमराव अंबेडकर — ये सभी उदाहरण इस बात का प्रमाण हैं कि महानता के लिए जाति या उपनाम आवश्यक नहीं है।
सरकार से मेरा निवेदन है कि यदि यह मांग न्यायसंगत और संविधान के मूल भावना के अनुरूप है, तो जाति और सरनेम समाप्त करने की दिशा में पहल की जाए। यदि यह संभव नहीं, तो कम से कम समाज में इस पर विमर्श को बढ़ावा दिया जाए, ताकि आने वाली पीढ़ियां एक समान, समतामूलक समाज में सांस ले सकें।