गुरु अर्जुन देव : सिख धर्म के पांचवें गुरु (15 अप्रैल 1563 -30 मई 1606 )
गुरु अर्जुन देव : सिख धर्म के पांचवें गुरु (15 अप्रैल 1563 -30 मई 1606 )
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
गुरु अर्जुन देव का काल (1563–1606) वह समय था जब भारत में मुग़ल साम्राज्य अपने उत्कर्ष पर था। अकबर का शासन अपेक्षाकृत सहिष्णु था, परंतु उसके उत्तराधिकारी जहाँगीर ने धार्मिक असहिष्णुता की नीति अपनाई। इसी काल में सिख धर्म एक संगठित संप्रदाय के रूप में उभर रहा था, जो सामाजिक न्याय, समानता और भक्ति पर आधारित था।
पारिवारिक और आध्यात्मिक पृष्ठभूमि
गुरु अर्जुन देव का जन्म 15 अप्रैल 1563 को गोइंदवाल (पंजाब) में हुआ था। अर्जुन देव का जन्म गुरु रामदास जी और माता भानी के घर हुआ। माता भानी, गुरु अमरदास जी की पुत्री थीं। इस प्रकार गुरु अर्जुन देव को अपने नाना से आध्यात्मिक संस्कार और अपने पिता से संगठनात्मक योग्यता का विरासत में ज्ञान मिला। बचपन से ही वे ध्यान, सेवा, कीर्तन और विनम्रता में लीन रहते थे।
उनके दो बड़े भाई थे — प्रीथी चंद और महादेव। प्रीथी चंद ने गुरु बनने की महत्त्वाकांक्षा से पिता की अवज्ञा की और अर्जुन देव से द्वेष किया। लेकिन अर्जुन देव जी ने शांतचित्त से इस संघर्ष को सहा और अपनी सेवा, निष्ठा और भक्ति से गुरु गद्दी प्राप्त की।
आध्यात्मिकता और दर्शन
गुरु अर्जुन देव की शिक्षा में निर्गुण भक्ति का अद्भुत समावेश था। उन्होंने सिख धर्म को केवल एक धार्मिक पंथ के रूप में ही नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक पुनर्जागरण के रूप में भी ढाला।
उनका यह दृढ़ विश्वास था कि—
ईश्वर एक है, सबमें समाया हुआ है।
सभी मनुष्य समान हैं — चाहे वे किसी जाति, धर्म या वर्ग के हों।
सेवा, भक्ति और सच्चाई ही मानव जीवन के लक्ष्य हैं।
उनकी वाणी में करुणा, समर्पण, सहिष्णुता और प्रेम का गहरा भाव है। "सुखमनी साहिब" जैसे ग्रंथों में उन्होंने यह स्पष्ट किया कि आत्मा की शांति सच्चे नाम (ईश्वर) के स्मरण में है।
आदि ग्रंथ की रचना: एक क्रांतिकारी कार्य
आदि ग्रंथ का संकलन गुरु अर्जुन देव की सबसे महान उपलब्धियों में से एक है। यह केवल सिख धर्म के लिए ही नहीं, बल्कि भारतीय धार्मिक साहित्य के लिए भी मील का पत्थर है।
आदि ग्रंथ की विशेषताएँ:
इसमें पहले चार गुरुओं की वाणियाँ शामिल की गईं — गुरु नानक देव, गुरु अंगद, गुरु अमरदास, और गुरु रामदास।
उन्होंने स्वयं की रचनाएँ भी जोड़ीं — जो भावनात्मक, दार्शनिक और काव्यात्मक रूप से अत्यंत समृद्ध थीं।
कबीर, नामदेव, रविदास, भक्ति आंदोलन के अन्य संतों की रचनाओं को भी इसमें स्थान दिया गया — जाति, पंथ या भाषा के भेद के बिना।
यह ग्रंथ गुरमुखी लिपि में संकलित किया गया, जिससे आमजन इसे पढ़ और समझ सके।
1604 में यह ग्रंथ पूर्ण हुआ और अमृतसर के श्री हरमंदिर साहिब में स्थापित किया गया।
श्री हरमंदिर साहिब: सार्वभौमिकता का प्रतीक
गुरु अर्जुन देव जी ने हरमंदिर साहिब (अब स्वर्ण मंदिर) को केवल एक पूजा स्थल नहीं, बल्कि मानव एकता का प्रतीक बनाया। उन्होंने इसे एक झील के मध्य बनवाया, जो जीवन और शांति का प्रतीक थी।
मंदिर के चारों ओर से द्वार खुलवाए गए ताकि सभी धर्म, जाति और वर्ग के लोग प्रवेश कर सकें।
मंदिर जमीन से नीचे बनवाया गया ताकि यह अहंकार नहीं, विनम्रता का प्रतीक हो।
वहाँ दिन-रात कीर्तन, लंगर और सेवा चलती रही।
गुरु अर्जुन देव ने अपने समय में कई सामाजिक विकृतियों को चुनौती दी—
जाति-प्रथा का विरोध कर हर व्यक्ति को गुरुद्वारे में समान स्थान दिया।
लंगर की परंपरा को और मजबूत किया — जिसमें अमीर-गरीब, हिंदू-मुस्लिम सब एक साथ बैठते।
महिलाओं की गरिमा और भागीदारी को सशक्त किया।
व्यापार, कृषि और कारीगरी को सिख समुदाय में बढ़ावा दिया।
राजनीतिक पृष्ठभूमि और शहादत
गुरु अर्जुन देव की बढ़ती लोकप्रियता और सिखों का संगठित स्वरूप मुग़ल सत्ता को चुनौती महसूस होने लगी। जब जहाँगीर गद्दी पर बैठा, तो उसने उन्हें धर्मांतरण के लिए बाध्य किया।
उन्हें लाहौर बुलाया गया और भयंकर यातनाएँ दी गईं:
तपते तवे पर बैठाया गया।
उबलता पानी शरीर पर डाला गया।
गर्म रेत शरीर पर फेंकी गई।
लेकिन गुरु ने हार नहीं मानी। उनके अंतिम शब्द थे:
"तेरा किया मीठा लागे, हर नाम पदारथ नानक मांगे।"
(तेरा किया मीठा लगता है, मैं बस तेरा नाम ही चाहता हूँ।)
30 मई 1606 को गुरु अर्जुन देव ने शहादत दी। वे पहले सिख गुरु थे जिन्होंने धर्म के लिए जीवन बलिदान किया।
शहादत का प्रभाव: सिख धर्म का रूपांतरण
उनकी शहादत के बाद सिख धर्म ने केवल भक्ति पंथ न रहकर एक संत-सिपाही की राह पकड़ी।
उनके पुत्र गुरु हरगोबिंद ने "मीरी और पीरी" (धर्म और शक्ति) का सिद्धांत दिया।
सिखों ने आत्मरक्षा और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का मार्ग चुना।
यह रूपांतरण आगे चलकर गुरु तेग बहादुर और गुरु गोविंद सिंह के नेतृत्व में सिख धर्म को एक शक्तिशाली और साहसी परंपरा में बदल देता है।
. गुरु अर्जुन देव की वाणी की विशेषताएँ
उनकी वाणी में गूढ़ दर्शन और सरलता का संगम मिलता है:
सुखमनी साहिब — सुख की मणि, आध्यात्मिक आनंद का स्रोत।
भाव — ईश्वर प्रेम, क्षमा, सहिष्णुता, सेवा, आत्मशुद्धि।
शैली — सधा हुआ छंद, मधुर लय, हृदयस्पर्शी भाषा।
प्रेरणा का अमिट स्रोत
गुरु अर्जुन देव केवल एक गुरु नहीं थे, वे विचारधारा, समर्पण और आत्मबलिदान की मूर्ति थे। उन्होंने सिख धर्म को स्थायित्व, संरचना और सार्वभौमिकता प्रदान की। उनके कार्य और बलिदान आज भी हर न्यायप्रिय मनुष्य के लिए दीपस्तंभ हैं।
उनका जीवन सिखाता है — धर्म सत्य है, और सत्य के लिए बलिदान जीवन की पूर्णता है।