
धर्म की राजनीति और आतंकवाद: कब रुकेगा ये घिनौना खेल?”
आतंकवाद किसी भी समाज की सबसे भयावह वास्तविकता है, लेकिन इसकी शुरुआत गोलियों या विस्फोटकों से नहीं होती—बल्कि एक जहरीली विचारधारा से होती है। जब समाज में असहिष्णुता, घृणा, और धार्मिक कट्टरता को विचारों के रूप में पनाह मिलती है, तभी आतंकवाद के बीज अंकुरित होते हैं। यह विचारधारा धीरे-धीरे लोगों के अवचेतन मन में उतरती है और एक दिन बंदूक की गोली के रूप में फूट पड़ती है।
हमारे संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर ने भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य के रूप में परिभाषित किया। उन्होंने समाज के वंचित वर्गों और महिलाओं को विशेष अधिकार इसलिए दिए क्योंकि वे समझते थे कि सदियों की दासता ने उनके आत्मविश्वास और चेतना को कुंद कर दिया था। संविधान का उद्देश्य केवल शासन व्यवस्था चलाना नहीं था, बल्कि सामाजिक समानता, बंधुत्व और न्याय का वातावरण बनाना भी था।
आज जब कुछ शक्तियां भारतीय दंड संहिता (IPC) का नाम बदलकर भारतीय न्याय संहिता (BNSS) रखती हैं, तो यह केवल नाम परिवर्तन नहीं होता; यह मानसिकता में आए संकुचन का प्रतीक बन जाता है। इसी प्रकार, जब कुछ राजनेता बार-बार "हिंदू राष्ट्र" की बात करते हैं, तो यह केवल शब्द नहीं होते—यह भारत की धर्मनिरपेक्ष आत्मा पर हमला होता है। जब कुम्भ मेले में मुसलमान दुकानदारों को हटाया जाता है, तो यह केवल व्यापार का मुद्दा नहीं रहता, यह धार्मिक विभाजन का संकेत बन जाता है।
फिर वही नेता, चुनाव के समय ईद पर टोपी पहनकर सजदा करते नजर आते हैं—क्या यह सच्ची आस्था है या केवल एक और वोट बैंक की राजनीति?
आतंकवाद की असली जड़ें इन्हीं में छुपी होती हैं। जब राजनीति धर्म के नाम पर की जाने लगे, जब जनता को हिंदू-मुस्लिम में बाँटने का अभियान चलाया जाए, तो वैमनस्य की आग में आम जनता झुलसती है। आतंकवादी घटनाएं तब जन्म लेती हैं जब इस आग को हवा दी जाती है।
योग गुरु से व्यापारी बने रामदेव का उदाहरण लीजिए—जो कभी योग के प्रचारक थे, लेकिन अब उनके व्यापारिक हित और विवादित बयानों ने उन्हें एक विभाजनकारी शख्सियत बना दिया है। उनके उत्पादों पर सवाल उठे, और जब उन्होंने सांप्रदायिकता भड़काने वाले बयान दिए, तब उन्हें न्यायपालिका और जनता दोनों से आलोचना झेलनी पड़ी।
पुलवामा हमले की जांच रिपोर्ट आज भी क्यों सार्वजनिक नहीं की गई? कौन चाहता है कि जनता को सच्चाई न पता चले? जब धर्म के ठेकेदार ही सत्ता के शीर्ष पर हों, तो देश की आत्मा मरने लगती है। यह देश तब लोकतंत्र नहीं रहता, बल्कि अज्ञान, अंधश्रद्धा और नफ़रत का अड्डा बन जाता है।
हिंदू और मुसलमान दोनों ही इस आग में झुलस रहे हैं। जब एक समुदाय पर हमला होता है, तो प्रतिशोध की भावना दूसरे समुदाय में जन्म लेती है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक विनाश नहीं हो जाता। इतिहास में सम्राट अशोक को भी कलिंग युद्ध के बाद पश्चाताप हुआ था, लेकिन आज के नेता न पश्चाताप करते हैं, न सुधार की दिशा में कोई कदम उठाते हैं।
समाधान क्या है?
धर्मनिरपेक्षता को आत्मसात करें – भारत की आत्मा इसकी विविधता में है। हर धर्म, जाति और भाषा को बराबरी का स्थान मिलना चाहिए।
राजनीति को धर्म से अलग करें – धर्म के नाम पर वोट मांगना संविधान का अपमान है और सामाजिक ताने-बाने को तोड़ने वाला कृत्य।
जनता को जागरूक बनाएं – आम आदमी को अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों को समझना होगा। भावनात्मक शोषण से बचना होगा।
शिक्षा और संवाद को बढ़ावा दें – आतंकवाद और कट्टरता का सबसे कारगर इलाज शिक्षा है। संवाद से ही सामाजिक दूरी को खत्म किया जा सकता है।
प्रेस और न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित करें – जब सच्चाई को छिपाया जाएगा, तभी अफवाहें पनपेंगी।
निष्कर्ष:
अगर हम समय रहते नहीं चेते, तो आने वाला कल केवल सन्नाटा और पश्चाताप का होगा। यह लेख किसी धर्म के खिलाफ नहीं, बल्कि उस सोच के खिलाफ है जो धर्म के नाम पर नफरत फैलाती है। हमें उस भारत को बचाना है जो प्रेम, सहिष्णुता और भाईचारे का प्रतीक है। अब समय है कि हम ‘हिंदू-मुसलमान’ के चश्मे को उतारकर ‘इंसानियत’ की नज़र से देश को देखें।