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"हिंदू समुदाय के साथ ऐतिहासिक, समकालीन, कार्यपालिका और न्यायपालिका स्तर पर हो रहे असमान व्यवहार का विश्लेषण

भारत का इतिहास केवल गौरवशाली सभ्यता और सांस्कृतिक विविधता का नहीं, बल्कि धार्मिक संघर्षों और एक विशेष समुदाय, हिंदू समाज, के साथ निरंतर असमानता और उत्पीड़न की कहानियों का भी साक्षी रहा है। पिछले हजार वर्षों से हिंदुओं को सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर पर योजनाबद्ध रूप से कमजोर किया गया। यह अन्याय केवल अतीत तक सीमित नहीं रहा, बल्कि स्वतंत्र भारत में भी विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से यह असंतुलन जारी है।

1. ऐतिहासिक उत्पीड़न की पृष्ठभूमि:

मुस्लिम आक्रमणों और शासन के दौरान हिंदू धार्मिक स्थलों का विध्वंस, जबरन धर्मांतरण, जजिया कर और मंदिरों की संपत्ति की लूट—ये सब केवल धार्मिक सह-अस्तित्व के विरुद्ध नहीं थे, बल्कि सांस्कृतिक दमन की स्पष्ट योजनाएं थीं। काशी, मथुरा, सोमनाथ जैसे पवित्र स्थल बार-बार हमलों का शिकार बने। कश्मीर और बंगाल में लाखों हिंदुओं को बलात इस्लाम कबूल करवाया गया। यह ऐतिहासिक पीड़ा आज भी हिंदू चेतना में गहरे तक अंकित है।

2. औपनिवेशिक काल में संस्थागत असमानता:

ब्रिटिश शासन ने “फूट डालो और राज करो” की नीति के तहत हिंदू-मुस्लिम मतभेदों को और गहरा किया। मुस्लिम लीग को राजनीतिक संरक्षण मिला, जबकि हिंदू मंदिरों को सरकारी नियंत्रण में लेकर उनकी धार्मिक स्वतंत्रता को बाधित किया गया। चर्चों और मस्जिदों को स्वायत्तता मिली, वहीं मंदिर सरकारी निरीक्षण के अधीन रहे। ईसाई मिशनरियों को धर्मांतरण के खुले समर्थन ने हिंदू संस्कृति को हीन और अविकसित साबित करने का प्रयास किया।

3. स्वतंत्र भारत की कार्यपालिका में असमानता:

भारतीय संविधान ने अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार दिए, जो लोकतांत्रिक दृष्टिकोण से उचित हो सकते हैं, लेकिन समय के साथ यह विशेषाधिकार एकपक्षीय बनते गए। मुस्लिम पर्सनल लॉ, वक्फ बोर्ड, मदरसे, और हज सब्सिडी जैसे प्रावधानों ने अल्पसंख्यकों को विशेष सुविधाएं दीं, परंतु हिंदू मंदिर आज भी राज्य सरकारों के अधीन हैं। उनकी आय का उपयोग अक्सर गैर-धार्मिक कार्यों में होता है।

कार्यपालिका का मौन: बंगाल, केरल और कश्मीर में हिंदुओं पर हमलों, लव जिहाद, जनसंख्या असंतुलन जैसे मुद्दों पर कार्यपालिका की चुप्पी और राजनीतिक संरक्षण न केवल असमानता का संकेत है, बल्कि एक बड़े समुदाय के प्रति शासन की उदासीनता को भी उजागर करता है।

4. न्यायपालिका की भूमिका और दोहरी संवेदनशीलता:

संविधान के रक्षक के रूप में न्यायपालिका से निष्पक्षता की अपेक्षा की जाती है, किंतु हालिया वर्षों में न्यायिक सक्रियता ने कई बार एकतरफा रुख दिखाया है।

प्रमुख उदाहरण:

सबरीमाला में परंपराओं को तोड़ने की दिशा में निर्णय आया, जबकि हज में महिलाओं की एंट्री या मस्जिदों की प्रथाओं पर कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ।

ज्ञानवापी और रामसेतु जैसे मुद्दों में हिंदू भावनाओं की उपेक्षा कर वैज्ञानिक जांच और पुरातत्विक प्रमाणों को भी नकारा गया।

धार्मिक जुलूसों पर प्रतिबंध एवं पुलिसिया दमन मुख्यतः हिंदू पर्वों पर देखने को मिला, जबकि अन्य समुदायों के आयोजनों में प्रशासन की सतर्कता और सम्मान देखा गया।

यह व्यवहार किस ओर संकेत करता है?
जब न्यायपालिका "धर्मनिरपेक्षता" के नाम पर केवल हिंदू धार्मिक परंपराओं की जांच करे और अल्पसंख्यक धार्मिक प्रथाओं को “संवेदनशील मुद्दा” बताकर मौन रहे, तो यह निष्पक्षता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है।

5. जनसंख्यिकीय चिंता और भविष्य की दिशा:

भारत में मुस्लिम जनसंख्या प्रतिशत बढ़ रहा है, जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू जनसंख्या लगभग समाप्त हो चुकी है। वहाँ हिंदुओं पर अत्याचार, जबरन धर्मांतरण और मंदिरों का विध्वंस आज भी जारी है, परंतु न भारत की न्यायपालिका, न कार्यपालिका और न ही वैश्विक मानवाधिकार संस्थाएं कोई ठोस कदम उठाती हैं।

हिंदू समुदाय के साथ हो रहा यह ऐतिहासिक और संस्थागत असंतुलन एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के मूल्यों के विरुद्ध है। कार्यपालिका और न्यायपालिका दोनों को आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है। समानता का अर्थ है, सभी धर्मों को एक जैसा सम्मान और अधिकार मिले। यदि एक समुदाय से निरंतर समर्पण, सहिष्णुता और बलिदान की अपेक्षा की जाती है, जबकि उसे संस्थागत संरक्षण नहीं मिलता, तो सामाजिक संतुलन कैसे कायम रहेगा?

हिंदू समाज को उसका आत्म-सम्मान, धार्मिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक अधिकार लौटाना आज की आवश्यकता है। तभी भारत सच्चे अर्थों में न्यायपूर्ण, समावेशी और संतुलित राष्ट्र बन सकेगा।

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