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असदुद्दीन ओवैसी: मुसलमानों की आवाज या राजनीति मोहरा*

भारत का लोकतंत्र हर नागरिक को बोलने की आज़ादी देता है और हर समुदाय को अपना प्रतिनिधित्व चुनने का हक़। इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए असदुद्दीन ओवैसी मुस्लिम समाज की तेज़तर्रार आवाज़ बनकर उभरे हैं। लेकिन यह सवाल बार-बार उठता है कि क्या उनकी यह आवाज़ मुसलमानों के हित में काम कर रही है या उन्हें समाज और राजनीति के हाशिये पर धकेल रही है?उनके भाषण जोश से भरे होते हैं। NRC, CAA, बाबरी मस्जिद, तीन तलाक, वक़्फ़ बोर्ड जैसे मुद्दों पर उनकी गर्जना मुस्लिम समुदाय की गहरी भावनाओं को छूती है। लेकिन क्या वे कभी यह साफ करते हैं कि इस देश के करोड़ों मुसलमानों की शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी समस्याओं का समाधान क्या है? उनकी शैली अक्सर भावनाओं को भड़काने तक सीमित रह जाती है। जब कोई नेता सिर्फ गुस्सा बेचता है, तो भीड़ को तात्कालिक संतोष मिल जाता है, लेकिन ज़मीनी बदलाव की कोई ठोस दिशा नहीं दिखती। उनकी राजनीति में यह पैटर्न साफ है—जोश जगाओ, तालियाँ बटोरो, पर समाधान की राह मत दिखाओ।उनकी राजनीति का एक बड़ा असर ध्रुवीकरण के रूप में सामने आता है। जब वे मुसलमानों के "हक़" की बात करते हैं, तो दूसरी ओर दक्षिणपंथी ताक़तें इसे "खतरा" बताकर अपने वोट एकजुट कर लेती हैं। इसका नतीजा यह होता है कि मुस्लिम बहुल इलाकों में AIMIM को जीत नहीं मिल पाती, और बहुसंख्यक इलाकों में सांप्रदायिक ताक़तें मज़बूत हो जाती हैं। यह सोचने की बात है कि ओवैसी की यह रणनीति आखिर किसके लिए फायदेमंद साबित हो रही है—मुसलमानों के लिए या उनके विरोधियों के लिए?वे मुसलमानों को बार-बार एक अलग और पीड़ित समुदाय के रूप में पेश करते हैं। यह सच हो सकता है, लेकिन राजनीति में शिकायत से ज़्यादा समाधान की ज़रूरत होती है। उनकी शैली मुसलमानों को मुख्यधारा से जोड़ने के बजाय उन्हें एक कोने में समेट देती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र जैसे राज्यों में उनका चुनाव लड़ना अक्सर सेकुलर दलों के वोट काटता है, जिससे अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को लाभ पहुंचता है। क्या उनकी यह उग्रता दक्षिणपंथी संगठनों के ध्रुवीकरण एजेंडे के लिए उपयोगी बन रही है? उनकी मौजूदगी से बहुसंख्यक समुदाय में यह धारणा मज़बूत होती है कि "मुसलमानों के नेता ऐसे हैं," जिससे बहुसंख्यक वोटों का ध्रुवीकरण आसान हो जाता है, एक बड़ा विरोधाभास यह है कि ओवैसी लोकतंत्र और संविधान की रक्षा की बात करते हैं, लेकिन उनकी पार्टी AIMIM एक परिवार नियंत्रित संगठन है। इसकी नींव नवाब महमूद नवाज खान ने रखी, फिर अब्दुल वाहिद ओवैसी ने इसे नया रूप दिया। इसके बाद सुल्तान सलाहुद्दीन और अब असदुद्दीन ओवैसी ने कमान संभाली। पार्टी में न तो पारदर्शिता दिखती है, न ही आंतरिक चुनाव की कोई प्रक्रिया। जो अपने संगठन में लोकतंत्र लागू नहीं कर सका, वह देश को लोकतंत्र का पाठ कैसे पढ़ाएगा? उनकी तीखी भाषा बहुसंख्यक समाज में भय और प्रतिक्रिया पैदा करती है, जिससे दक्षिणपंथी ताक़तों को मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाने का मौका मिलता है। इससे मुसलमान मुख्यधारा से और कटते चले जाते हैं।अकबरुद्दीन ओवैसी, असदुद्दीन के छोटे भाई, AIMIM की राजनीति में एक और अहम किरदार हैं। 2012 में उनका "15 मिनट पुलिस हटा लो" वाला बयान राष्ट्रीय सुर्खियों में आया। इस भड़काऊ भाषण ने AIMIM को तेलंगाना और आंध्र प्रदेश से बाहर पहचान दिलाई, लेकिन इसके साथ विवाद भी खड़ा किया। अकबरुद्दीन की यह शैली उनकी पार्टी की छवि को और उग्र बनाती है। यह बयान महज़ एक भावनात्मक उबाल नहीं था, बल्कि इसने ध्रुवीकरण की आग को और भड़काया। इसके बाद AIMIM की राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा बढ़ी, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था? अकबरुद्दीन के इस बयान ने मुस्लिम युवाओं में जोश तो भरा, पर साथ ही बहुसंख्यक समुदाय में डर और नाराज़गी भी पैदा की। इसका फायदा उठाकर दक्षिणपंथी ताक़तों ने अपने नैरेटिव को मज़बूत किया। अकबरुद्दीन की यह शैली असदुद्दीन की रणनीति से अलग नहीं है—दोनों भावनाओं को उकसाते हैं, लेकिन समाधान की बात कम करते हैं।असदुद्दीन संवेदनशील मुद्दो जैसे सीएए, एनआरसी, बाबरी, तीन तलाक, वक़्फ़ बोर्ड पर बोलते हैं, जो मुस्लिम युवाओं को उकसाते हैं। लेकिन शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर ठोस नीति या कदम का अभाव दिखता है। AIMIM सत्ता की जिम्मेदारी लेने से बचती है, ताकि जवाबदेही से दूर रहे। तेलंगाना में कभी KCR तो कभी कॉंग्रेस की सरकारो को बिना शामिल हुए समर्थन देना इसका उदाहरण है—फायदा लो, पर सरकार की ज़िम्मेदारी मत उठाओ। उनका यह दोहरा खेल सेकुलर वोटों को कमजोर करता है और भाजपा को मज़बूती देता है। अकबरुद्दीन के उस बयान के बाद से AIMIM को मिली पहचान संयोग नहीं लगती। उनकी पार्टी को सरकारी सहायता मिलती है, उनके संस्थानों, मेडिकल कॉलेज और स्कूल को मदद दी जाती है। साथ ही वक़्फ़ बोर्ड की हजारों करोड़ की संपत्ति कब्जाने का आरोप भी ओवैसी पर लगता रहा है लेकिन भाजपा उन्हें निशाना क्यों नहीं बनाती, जबकि अन्य विपक्षी नेताओं पर कार्रवाई होती रही है? क्या वे ध्रुवीकरण के लिए एक उपयोगी किरदार हैं? मुसलमानों को आज नेतृत्व से ज़्यादा मार्गदर्शन चाहिए। ऐसी राजनीति चाहिए जो शांति, समावेश और प्रगति की बात करे। ओवैसी बंधुओं ने मुसलमानों को जोड़ा कम, अलग ज़्यादा किया है। वक्त आ गया है कि मुसलमान ऐसी भावनात्मक राजनीति से दूरी बनाएं और ऐसी राह चुनें जो उन्हें समाज की मुख्यधारा में लाए।

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