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पीएम साहब ध्यान दीजिए, भूखे पेट को मुक्ति नहीं रोटी चाहिए

बाल मजदूरी का अपने देश में ही नहीं सब जगह हमेशा ही विरोध होता रहा है। और सही मायनों में निष्पक्ष रूप से सोचें तो यह जरूरी भी है क्योंकि बचपन खेलने पढ़ने और मौज मनाने के लिए होता है ना कि मेहनत मजदूरी के लिए। मगर जिस प्रकार हाथ की पांच अंगुलियां एक समान नहीं होती भगवान ने सबकी किस्मत भी एक सी नहीं लिखी इसलिए कुछ बचपन तो वाकई मौज मस्ती में ही आगे बढ़ रहे हैं लेकिन कुछ के लिए मेहनत मजदूरी करना उनके परिवार के पालन पोषण और दो समय की रोेटी के लिए अत्यंत जरूरी हो जाता है कार्य करना। 


जिन लोगों ने आर्थिक समस्या या कठिनाई तथा खाली पेट की जलन क्या होती है कभी महसूस नहीं की ऐसे लोग बाल मजदूरी करने वालों को मुक्त कराने और उनके नाम पर बड़ी बड़ी खबरें और फोटो छपवाने के साथ ही भाषण देने में तो कोई कमी नहीं रखते हैं। कुछ के तो धंधे ही अगर सही मायनों में देखें तो इस नाम पर चलते हैं। 

मैं कोई बाल मजदूरी का पक्षधर नहीं हूं और ना ही यह चाहता हूं कि कोई बच्चा मस्ती करने की उम्र में काम करे। बाल मजदूर मुक्ति का आंदोलन चलाने वालांे से भी मुझे कोई शिकायत नहीं है क्योंकि  अगर सच्चे  मन से कार्य किया जाए तो यह काम भगवान की  पूजा के समान है। लेकिन मैंने अपना बचपन अभावों में गुजारा है इसलिए मुझे पता है कि ज्यादातर बच्चे मजदूरी करने के लिए क्यों मजबूर होते हैं।

जब घर में कई कई दिन तक चूल्हा नहीं जलता। पकवान बनाने के सामान की बात तो दूर नमक और आटा भी नसीब नहीं होता है और अगर कोई छोटी मोटी बीमारी का शिकार भी हो गया तो उसकी दवाई और ईलाज के लिए जब कुछ सुझाई नहीं देता और घर में जब कोई काम करने वाला बड़ा होता नहीं। गाल बजाने वाले मदद के हाथ आगे बढ़ाते नहीं ऐसे में पेट की आग बुझाने और बीमार को बचाने के लिए बच्चे मेहनत मजदूरी करने के लिए घर से बाहर निकलते हैं। 
और मजे की बात यह है कि इन मासूमों की मेहनत का सही मुआवजा भी ज्यादातर काम कराने वाले नहीं देते हैं। इसलिए कष्ट है कि बढ़ते ही जाते हैं मगर मरता क्या नहीं करता वाली ग्रामीण कहावत इन पर सही उतरती है क्योंकि की गई मजदूरी का पूरा भुगतान ना मिलने पर भी यह काम करने के लिए मजबूर होते हैं। 

ऐसे में हमारे जो भाई और संगठन चाहे वह प्राइवेट हों या सरकारी उनके कर्ताधर्ता बंधुवा बाल मजदूरों को मुक्त कराने की बात तो बहुत करते हैं लेकिन यह बताने वाला कोई नहीं होता कि जिन मजूदरों या बाल मजदूरों को मुक्त कराया गया है उन्हें दो समय की पेट भरने को रोटी, कपड़ा और सिर छिपाने के लिए छत, भले ही वो फूंस या टिन की क्यों ना हो। तथा पढ़ाई के लिए क्या व्यवस्था की गई है। 

मेरा मानना है कि सिर्फ मुक्त कराना किसी समस्या का समाधान नहीं है। जब तक स्वतंत्र कराए गए बच्चों को पूर्ण रूप से काम और रहने की व्यवस्था ना हो तब तक यह मजदूर मुक्ति और बाल मुक्ति आंदोलन किसी ढकोसले से ज्यादा कुछ नजर नहीं कहा जा सकता आता है। 

देश में कितने ही ऐसे संगठन और नेता बताए जाते हैं जो वातानुकूलित कमरों में बैठकर महंगी क्राकरी में चाय की चुस्कियां लेते और खाना खाते जो बाल मजदूरों को मुक्त कराने की योजना बनाते है।ं उससे यह आंदोलन सफल नहीं होने वाला है। अगर हम चाहते हैं कि मानव जीवन से यह अभिशाप कम हो तो उन्हें गरीब और मलिन बस्तियों में पहुंचकर तथा मध्यम दर्जें के लोगों की कठिनाईयों को समझना होगा और उसके बाद साधन संपन्न लोगों और सरकार के सहयोग से इन मजबूरों और   जरूरतमंदों के साथ बैठकर योजना बनानी होगी तभी बाल मजदूरी और बंधुवा मजदूरी समाप्त किए जाने का प्रयास भी कहा जा सकता है। 

बीते दिनों यूपी के अलीगढ़ के डीएम चंद्रभूषण सिंह के निर्देश पर एसडीएम इगलास कुलदेव सिंह के नेतृत्व में तहसीलदार सौरभ ने अपने सहयोगियों के साथ गांव बांसवली से करीब 127 बंधुवा मजदूर भटटों से मुक्त कराकर उनके गांव भेज दिया। सवाल यह उठता है कि वो मजबूरी  में ही तो बिहार के नवादा से यहां पहुंचे थे। उन्हंे वापस भेजकर उनकी भलाई नहीं कई कष्टों का सामना करने के लिए मुझे लगता है कि उन्हें छोड़ दिया गया। होना तो यह चाहिए था कि उनके जीवन यापन की व्यवस्था भी डीएम  साहब को करानी चाहिए थी। क्योंकि यह राष्ट्रव्यापी समस्या है इसलिए कोई छोटा नेता इसे हल कर पाएगा यह संभव नही है।

यह तो गरीबों और जरूरतमंदों के उत्थान की बात सोचने वाले पीएम मोदी के द्वारा ध्यान देने से ही हल हो पाएगा। इसलिए पीएम साहब मानवहित में समय रहते इस समस्या के समाधान हेतु ध्यान दीजिए। 

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