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भारत मे बढ़ता इस्लामोफोबिया--एक गंभीर चुनौती - Dr Md Firoz Alam

भारत, जो अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता के लिए जाना जाता है, पिछले कुछ दशकों में इस्लामोफोबिया के बढ़ते प्रभाव का गवाह बन रहा है। इस्लामोफोबिया, जिसे इस्लाम या मुस्लिम समुदाय के प्रति डर, नफरत या पूर्वाग्रह के रूप में परिभाषित किया जाता है, भारत में विभिन्न रूपों में प्रकट हो रहा है—चाहे वह राजनीतिक बयानबाजी हो, प्रशासनिक नीतियां हों, या सामाजिक व्यवहार। इस्लामोफोबिया की जड़ें ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक कारकों में गहरी हैं। सबसे पहले, 1947 का भारत-पाकिस्तान विभाजन एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने हिंदू-मुस्लिम संबंधों में स्थायी तनाव पैदा किया। इस दौरान हुई हिंसा और बड़े पैमाने पर विस्थापन ने दोनों समुदायों के बीच अविश्वास को जन्म दिया, जो आज भी कई रूपों में मौजूद है।राजनीतिक रूप से, हाल के दशकों में हिंदू राष्ट्रवाद का उदय इस्लामोफोबिया को बढ़ाने में महत्वपूर्ण रहा है। केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी और उसके सहयोगी संगठन हिंदुत्व की विचारधारा को बढ़ावा देते हैं, जिसे कई लोग मुस्लिम-विरोधी मानते हैं। नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) जैसे कानूनों को मुस्लिम समुदाय के खिलाफ भेदभावपूर्ण माना गया है, जिससे उनकी असुरक्षा बढ़ी है। इसके अलावा कुछ राजनीतिक दलों के कुछ नेताओं द्वारा दिए गए भड़काऊ बयान, जिनमें मुस्लिम समुदाय के खिलाफ नकारात्मक टिप्पणियां शामिल हैं, समाज में ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रहे हैं।
सामाजिक स्तर पर, मीडिया और फिल्मों ने भी इस्लामोफोबिया को बढ़ावा दिया है।
पिछले कुछ वर्षों में आप मीडिया कवरेज देखेंगे तो पाएंगे कि किस तरह से मीडिया ने मुसलमानों के प्रति नफरत भरा प्रोपगंडा चलाकर समाज मे जहर भरने का काम किया है हाल के वर्षों में, नफरत भरे भाषणों में भारी वृद्धि देखी गई है, फिल्मों में मुस्लिम शासकों को खलनायक के रूप में चित्रित करना और सोशल मीडिया पर झूठी खबरें फैलाना इस समस्या को और गंभीर बना रहा है। गाय संरक्षण के नाम पर होने वाली लिंचिंग और बुलडोजर कार्रवाइयां, जो ज्यादातर मुस्लिम बहुल इलाकों में होती हैं, भी इस्लामोफोबिया के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
प्रशासनिक स्तर पर भी मुस्लिमों के खिलाफ पक्षपात देखा गया है। कुछ राज्यों में धार्मिक स्थलों से जुड़ी विवादित नीतियां देखने को मिल रही हैं, जिससे मुस्लिम समुदाय में चिंता बढ़ी है, और वक्फ संपत्तियों पर नए कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन इस बात के संकेत हैं कि राज्य सरकारें मुस्लिम समुदाय को "सबक सिखाने" की होड़ में हैं। बुलडोजर कार्रवाइयां, जिन्हें "बुलडोजर जस्टिस" कहा जाता है, खासकर उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में मुस्लिमों के घरों और दुकानों को निशाना बना रही हैं।सामाजिक बहिष्कार की मांग और "पाकिस्तानी" या "आक्रांता" जैसे अपशब्दों का प्रयोग मुस्लिमों को हाशिए पर धकेल रहा है। सूफी संतों को आक्रांता बताने जैसे दावे ऐतिहासिक तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं, जिससे सांस्कृतिक एकता को नुकसान पहुंच रहा है। हालांकि, यह कहना गलत होगा कि भारत में सभी इस्लामोफोबिया के समर्थक हैं, कई राज्यो में गैर बीजेपी सरकारें और सेक्युलर दल अल्पसंख्यक समुदायों के साथ मजबूती से खड़े नजर आते हैं, केंद्र सरकार की ओर से मुसलमानों में त्योहारों के अवसरों पर सकारात्मक संदेश भी जारी किए जाते हैं, इसके अलावा "सौगात-ए-मोदी" कार्यक्रम जो भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) द्वारा शुरू किया गया है, जिसमें गरीब परिवारों, खासकर अल्पसंख्यक समुदायों (मुस्लिम, सिख, ईसाई) को उपहार किट बांटी जा रही हैं। यह पहल ईद, बैसाखी और ईस्टर जैसे त्योहारों के मौके पर शुरू की गई है, सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट ने कई मामलों में धार्मिक भेदभाव के खिलाफ फैसले दिए हैं, इसके अलावा कई सिविल सोसाइटी और समाजिक कार्यकर्ता इस्लामोफोबिया के खिलाफ काम कर रहे हैं, लेकिन ये प्रयास नकारात्मक घटनाओं की तुलना में कम प्रभावी साबित हो रहे हैं।चुनौती यह है कि इस्लामोफोबिया अब सिर्फ नेताओं तक सीमित नहीं है; यह आम लोगों की जुबान पर भी पहुंच गया है। प्रशासनिक अधिकारी भी प्रोमोशन के लिए सांप्रदायिक एजेंडे को अपनाते दिख रहे हैं। बच्चों की छोटी-मोटी लड़ाई को भी सांप्रदायिक रंग देकर तुरंत कार्रवाई की जा रही है, जो सामाजिक ताने-बाने को कमजोर कर रहा है इस्लामोफोबिया से निपटने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की जरूरत है। सबसे पहले, सरकार को निष्पक्ष नीतियां बनानी होंगी और भड़काऊ बयानों पर सख्त कार्रवाई करनी होगी। शिक्षा के जरिए जागरूकता फैलाना और इतिहास को संतुलित तरीके से पेश करना भी जरूरी है। मीडिया को नफरत फैलाने के बजाय एकता को बढ़ावा देना चाहिए, सामुदायिक स्तर पर, हिंदू-मुस्लिम संवाद को प्रोत्साहित करना और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए आपसी समझ बढ़ाना प्रभावी हो सकता है। सूफी परंपराओं जैसे साझा विरासत को उजागर करने से भी सकारात्मक बदलाव आ सकता है। अंततः, यह याद रखना जरूरी है कि भारत की ताकत उसकी विविधता में है, और इस्लामोफोबिया इसे कमजोर करने का काम कर रहा है।
भारत में इस्लामोफोबिया एक गंभीर चुनौती बन चुका है, भारत की ताकत उसकी विविधता और सह-अस्तित्व में है। इस्लामोफोबिया जैसी प्रवृत्तियां न केवल एक समुदाय विशेष के लिए, बल्कि पूरे देश के सामाजिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए चुनौती हैं। इसके समाधान के लिए सरकार, मीडिया, न्यायपालिका और आम नागरिकों को मिलकर काम करना होगा, ताकि गंगा-जमुनी तहजीब की परंपरा को और मजबूत किया जा सके
Dr Md Firoz Alam General Physican
Aleena Health Care Director with District President of AIMA Mediea,Members of JUH,Members of All India Police Friends Organization New Delhi, Volunteer Cyber Crime

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