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महाराणा प्रताप जी के बेटी चम्पा की शौर्य गाथा

⛳महाराणा प्रताप की बेटी #चंपा ने 11 साल की उम्र में दिया बलिदान👇
Hindu Queens: भारत की वीरांगनाओं ने मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक को घुटने टेकने पर मजबूर किया है. महाप्रतापी राजाओं की पुत्रियां भी इसमें पीछे नहीं रही हैं. मुगल काल से लेकर 1857 की क्रांति तक वीर महिलाओं ने अपनी बहादुरी का प्रदर्शन किया है.

भारत को सैकड़ों साल तक मुगल, अफगान, मंगोल, अंग्रेज आक्रांताओं से जूझना पड़ा है. यहां के राजाओं ने उन्हें कड़ी टक्कर दी. आक्रांताओं से लड़ाई में राजा-महाराजाओं ने तो अपने शौर्य का परिचय तो दिया ही, मातृभूमि की रक्षा में अपना बलिदान भी दिया. इन राजा-महाराजाओं का साथ भारत की वीर रानियों और महारानियों ने भी दिया. जरूरत पड़ने पर उन्होंने राज्य की बागडोर भी संभाली और उसकी रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में भी उतरीं. यहां तक मातृभूमि की रक्षा के लिए अपनी जान भी न्यौछावर कर दी.

⚔️महाराणा प्रताप की बेटी #चंपा का मातृभूमि प्रेम और बलिदान 👇
महाराणा प्रताप सिसोदिया राजवंश के थे. उन्होंने 1572 से 1597 तक मेवाड़ की राजगद्दी संभाली. महाराणा प्रताप के पिता उदय सिंह के समय से ही आतंकी विधर्मी मुगल मेवाड़ को जीतना चाहते थे. उस समय दिल्ली का सुल्तान आक्रांता👹 अय्याश अकबर भी मेवाड़ को अपने अधीन करने के लिए लगातार अभियान चला रहा था. 1576 में महाराणा प्रताप और अकबर के बीच हल्दीघाटी का युद्ध हुआ था. ये युद्ध मात्र चार घंटे तक चला था. इस युद्ध में अकबर की सेना का नेतृत्व मान सिंह ने किया था. महान शौर्य और पराक्रम के बावजूद महाराणा प्रताप इस युद्ध में हार की कगार पर थे. इसी दौरान उनके सहयोगी झाला ने महाराणा प्रताप का छत्र पहनकर दुश्मन सेना को धोखा दिया और वीरगती को प्राप्त हुए। महाराणा प्रताप घायल अवस्था में युद्ध क्षेत्र से हट गए. इसके बाद महाराणा प्रताप सालों तक जंगल में भटकते रहे. उनके साथ बेटी चंपा और बेटा भी साथ में थे. इतिहास की किताबों में महाराणा की बेटी चंपा की वीरता को भी जगह दी गई है.

स्वयं भूखी रखकर अतिथि को दी रोटी :
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जंगल में रहने के दौरान महाराणा प्रताप जंगली फल, बेर, घास की रोटी आदि पर निर्भर थे. कभी उनके परिवार को खाना मिलता था तो कभी नहीं मिलता था. जंगल में रहने के दौरान बेटी चंपा, जो मात्र 11 साल की थी, अपने भाई के साथ खेल रही थी. इसी दौरान चार साल के भाई को भूख लग गई और वो खाना मांगने लगा. चंपा को चंपा को मालूम था कि जंगल में खाना नहीं है. उसने भाई को कहानी सुनाते हुए बहला दिया और उसे सुला दिया. इसके बाद वो भाई को मां के पास ले गई. मां के पास पहुंचने पर उसने पिता महाराणा प्रताप को चिंता में डूबे देखा. उसने पिता से पूछा तो पता चला कि कोई अतिथि आए हैं और वो उनके दर से भूखा न जाए, इसलिए महाराणा चिंता में हैं. चंपा ने पिता से कहा कि वो चिंता न करें. अतिथि भूखा नहीं जाएगा. कल की दो रोटियां उसने भाई के लिए छिपा कर रखी हैं. वो सो गया है. इसलिए वो रोटियां अतिथि को दी जा सकती है. इसके बाद चंपा ने घास की दो रोटियां लाकर पिता को दे दी. महाराणा ने वो रोटियां अतिथि को देकर अपना राजधर्म निभाया. इसी बीच चंपा भी भूख से बेहोश हो गई. महाराणा प्रताप ने बच्चों की स्थिति को देखते हुए दु:खी होकर अकबर की अधीनता स्वीकार करने की बात की. इस पर बेहोश चंपा अचानक उठी और पिता से कहा कि वो अकबर की अधीनता स्वीकार करके मातृभूमि को नीचा मत दिखाएं. अकबर की अधीनता स्वीकार न करें. इसके बाद वो फिर से बेहोश हो गई और उसी बेहोशी की हालत में चंपा ने कुछ देर बाद दम तोड़ दिया. छोटी सी चंपा का ये बलिदान आज भी इतिहास में दर्ज है

रानी लक्ष्मी बाई ::
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई भी 22 साल की उम्र में अंग्रेजों से लड़ते हुए 18 जून 1858 को वीरगती को प्राप्त हो गई थी. रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवंबर 1835 को यूपी के वाराणसी में हुआ था. उन्हें मणिकर्णिका उर्फ मनु के नाम से जाना जाता था. चार साल की उम्र में ही मनु की मां की मौत हो गई थी. इसके बाद 1842 में मनु की शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई. शादी के बाद उन्हें लक्ष्मीबाई का नाम दिया गया. 1851 में लक्ष्मीबाई को पुत्र हुआ लेकिन मात्र चार माह में ही उसकी मौत हो गई. इसी बीच राजा गंगाधर राव भी बीमार हो गए. उनकी सलाह पर लक्ष्मीबाई ने एक उत्तराधिकारी के रूप में दामोदर राव को गोद लिया. कुछ समय बाद 21 नवंबर 1853 को गंगाधर राव की मौत हो गई. मात्र 18 वर्ष की आयु में दो-दो आघात झेलने के बावजूद लक्ष्मीबाई ने हिम्मत नहीं हारी और झांसी की गद्दी संभाल ली. गंगाधर राव की मौत के बाद दामोदर राव को झांसी का उत्तराधिकारी मानने से अंग्रेजों ने मनाकर दिया. इसके बाद मार्च 1854 में अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई को महल छोड़ने का आदेश दिया. लेकिन उन्होंने झांसी नहीं छोड़ी. इस दौरान उन पर ओरछा और दतिया के राजाओं ने हमला कर दिया. लेकिन लक्ष्मीबाई ने इस हमले को नाकाम कर दिया. 1858 में अंग्रेजों ने झांसी पर हमला किया. अंग्रेज सेना ने झांसी के किले को घेर लिया. अपनी सेना के साथ लड़ने के लिए लक्ष्मीबाई ने दामोदर राव को पीठी पर बांधा और घोड़े पर सवार होकर युद्ध में उतर गईं. उन्होंने मुंह से घोड़े की लगाम पकड़े, दोनों हाथों से तलवार चलाते हुए उन्होंने अंग्रेजी सेना में दहशत फैला दी. लेकिन भारी संख्या बल के आगे उनकी सेना हारने लगी. इसी बीच मौका पाकर सहयोगियों की मदद से वो युद्ध के मैदान से हट गई. लेकिन मुखबिर ललचा गद्दारों के कारण उन पर फिर से हमला हो गया. 18 जून 1858 को लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई.

महारानी तपस्विनी:
रानी लक्ष्मीबाई ही नहीं अन्य भारतीय वीरांगनाओं ने अंग्रेजों के साथ युद्ध में अदम्य वीरता दिखाई है. लक्ष्मीबाई की भतीजी महारानी तपस्विनी ने भी अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया था. 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों ने उन्हें जेल में बंदकर दिया था. जेल से छूटने के बाद वो नाम बदलकर क्रांतिकारियों के साथ आजादी की लड़ाई लड़ती रहीं. नेपाल, कोलकाता आदि में रहते हुए उन्होंने आजादी के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई. 1907 में उनकी मौत हो गई. रानी अवंतीबाई लोधी, वीरांगना ऊदा देवी, वीरांगना झलकारी बाई ने भी युद्ध में अंग्रेजों के दांत खट्टे किए.⛳🇮🇳
⚔️🔱⚔️#हल्दीघाटी #महाराणप्रताप ⚔️🔱⚔️

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