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"राजनीति और नौकरशाही: शिक्षा, शक्ति और सुशासन का संतुलन"

भारतीय लोकतंत्र में राजनीति और नौकरशाही के बीच का रिश्ता एक ऐसा दिलचस्प द्वंद्व है जहां एक तरफ आईआईटी-आईआईएम से निकले उच्च शिक्षित नेता हैं तो दूसरी तरफ गांव-कस्बों से उभरे वे नेता जिनकी औपचारिक शिक्षा सीमित होने के बावजूद जनता से गहरा जुड़ाव है। यह विविधता हमारी राजनीतिक व्यवस्था की ताकत भी है और चुनौती भी। मनमोहन सिंह जैसे विद्वान अर्थशास्त्री से लेकर मायावती जैसे जमीनी नेताओं तक के सफर में हम देखते हैं कि शिक्षा का स्तर अकेला निर्णायक कारक नहीं होता। कई बार पढ़े-लिखे नेता भी जनभावनाओं से कट जाते हैं, जबकि कम पढ़े-लिखे नेता जनता की नब्ज बेहतर समझते हैं।

इस समीकरण में नौकरशाही की भूमिका और भी दिलचस्प हो जाती है। यूपीएससी की कठिन परीक्षाओं से निकले अधिकारी जहां नियम-कानून और प्रक्रियाओं में बंधे होते हैं, वहीं राजनेताओं को अक्सर व्यावहारिक समाधान चाहिए होते हैं। यही वह जगह है जहां टकराव पैदा होता है - जब एक आईएएस अधिकारी कानून की धाराएं गिनाने लगता है और नेता जनता की तात्कालिक जरूरतों पर जोर देता है। बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में यह टकराव अक्सर सुर्खियां बटोरता है, जहां अधिकारियों के तबादले राजनीतिक दबाव का खेल बन जाते हैं।

लेकिन यह पूरी कहानी नहीं है। गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्यों में हमने देखा है कि कैसे शिक्षित नेतृत्व और पेशेवर नौकरशाही के बीच बेहतर तालमेल से विकास के नए मॉडल खड़े होते हैं। जीएसटी जैसे बड़े सुधार इस बात के जीते-जागते उदाहरण हैं कि जब राजनीतिक इच्छाशक्ति और नौकरशाही की क्षमता साथ काम करती है तो परिणाम सामने आते हैं। डिजिटल इंडिया मिशन हो या फिर डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर, ये सभी उन मामलों में शामिल हैं जहां दोनों पक्षों ने मिलकर काम किया।

समस्या तब गहराती है जब राजनीति में अपराधीकरण और नौकरशाही में जड़ता आड़े आती है। 2019 के लोकसभा चुनाव में 43% सांसदों के आपराधिक मामले होना चिंताजनक है, वहीं दूसरी ओर नौकरशाही की लालफीताशाही कई बार विकास को अटका देती है। यहां समाधान एकतरफा नहीं हो सकता। राजनीति में शिक्षा और नैतिकता को बढ़ावा देने के साथ-साथ नौकरशाही को भी अधिक जवाबदेह और जनोन्मुखी बनाना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कई बार राजनीति में अपराधीकरण पर चिंता जताई है, वहीं नौकरशाही में सुधार की मांग भी लंबे समय से उठती रही है।

अंततः यह संतुलन का खेल है। जिस तरह एक अच्छे नाटक में विभिन्न स्वभाव के पात्रों की आवश्यकता होती है, उसी तरह लोकतंत्र को भी विविध प्रतिभाओं की जरूरत होती है। शिक्षित नेताओं की विश्लेषणात्मक क्षमता और कम पढ़े-लिखे नेताओं की जमीनी समझ - दोनों ही महत्वपूर्ण हैं। नौकरशाही को जहां नियमों का पालन करना चाहिए, वहीं उसे लचीला भी होना चाहिए। जब यह संतुलन बैठ जाता है तो परिणाम सुशासन के रूप में सामने आते हैं। भारत के संदर्भ में यह चुनौतीपूर्ण जरूर है, लेकिन असंभव नहीं। जरूरत है तो सिर्फ सभी पक्षों की ईमानदार कोशिश की।

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