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निजी क्षेत्रों में आरक्षण से बर्बाद हो जाएंगे उद्योग धंधे

विधि संविधान में प्रत्येक नागरिक को कानून के समक्ष समानता कहीं भी बसने और रोजगार की आजादी का मौलिक अधिकार प्राप्त होने के बाद भी हमारे राजनीतिक दल वोटों को प्राप्त करने के लिए कोई भी मौका छोड़ना नहीं चाह रहे हैं, क्योंकि जीतने भी सरकारी संस्थान हैं उनमें उनकी क्या स्थिति है और वो कई कई साल बाद भी या तो यथास्थिति है अथवा घाटे में चल रहे हैं। उसके बावजूद इनके द्वारा प्राइवेट क्षेत्र के उद्योग धंधों को जहां तक मुझे लगता है कारण कुछ भी हो नीति कोई भी बना रहा हो लेकिन कह अनकहे रूप से बर्बाद करने की पटकथा निजी क्षेत्रों में 75 फीसदी आरक्षण देने की बात करके की जा रही है।

हो सकता है कि इससे ऐसा करने वालों को लगता होगा कि किसी व्यक्ति को फायदा होगा मगर मेरा मानना है कि इससे निजी उद्योगों में रोजगार कम होंगे। बिना कागजों में दर्शाए ज्यादा कर्मचारियों को रखकर काम कराने की प्रवृति बढ़ेगी और यह सब उस पात्र व्यक्ति के लिए नुकसानदायक होगा जिसे लाभ दिलाने के नाम पर आरक्षण की बात की जा रही है।
अभी तक कई प्रदेशों में ऐसे प्रयास हुए लेकिन या तो पास होने से पहले ही इनमें अड़ंगा अटक गया या न्यायालय में मामले पहंुच गए जो इस बात का प्रतीक है कि एक तरफ सरकार उद्योगों को बढ़ावा देने रोजगार बढ़ाने की बात कर रही है दूसरी ओर ऐसे नियम कानून लाकर इन्हें नुकसान पहुंचाने की पटकथा लिखी जा रही है।

झारखंड सरकार प्रदेश में खुलने वाली निजी कंपनियों में 75 फीसद आरक्षण स्थानीय लोगों के लिए सुनिश्चित करवाना चाहती है और इसके लिए विधानसभा में बिल लेकर आने की योजना है। बिल पास होने के बाद यह कानून का रूप लेगा, लेकिन इससे पूर्व कैबिनेट की अनुमति आवश्यक होगी। इसी उद्देश्य से श्रम विभाग ने कैबिनेट के लिए प्रस्ताव तैयार किया है।
सूत्रों के अनुसार तैयार प्रस्ताव में 30 हजार रुपये तक की तमाम नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए 75 फीसद आरक्षण का प्रविधान होगा। जो कंपनियां इसकी अवहेलना करेंगी, उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने का भी प्रविधान किया गया है। अनुमान लगाया जा रहा है कि निजी कंपनियों में लेखा कार्य से जुड़े कर्मी और चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी स्थानीय होंगे। प्रस्ताव पर विधि विभाग, कार्मिक विभाग और वित्त विभाग की अनुशंसा अभी प्राप्त किया जाना है।

आरक्षण हमेशा से राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दा रहा है। यह वोट दिलाऊ भी माना जाता है, इसीलिए रूप बदल-बदल कर फैसला होता रहा है। हाल ही में हरियाणा सरकार निजी क्षेत्र में पचास हजार रुपये तक के वेतन की नौकरियों में स्थानीय निवासियों को 75 फीसद आरक्षण का कानून लाई है, लेकिन इसका कोर्ट की कसौटी पर खरा उतरना मुश्किल है।
संविधान जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव की मनाही करता है। साथ ही संविधान में प्रत्येक नागरिक को कानून के समक्ष समानता, कहीं भी बसने और रोजगार की आजादी का मौलिक अधिकार है। संविधान के अनुसार निजी कंपनियां राज्य की परिधि से भी बाहर हैं। हरियाणा के कानून को कोर्ट में इन कसौटियों से गुजरना होगा। हरियाणा से पहले आंध्र प्रदेश ने इसे लागू किया था जिसका मामला हाई कोर्ट में लंबित है। कनार्टक ने भी ऐसा प्रयास किया था। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश ने भी ऐसा कानून लाने की घोषणा की थी जबकि झारखंड तैयारी में जुटा है। देश के जानेमाने वकील हरीश साल्वे कहते हैं कि सिर्फ निवास के आधार पर आरक्षण देना और उसे सभी पर लागू करना साफ तौर पर असंवैधानिक दिखाई देता है। ऐसा नियम भेदभाव करने वाला है।
हालांकि वह कहते हैं कि उन्हें हरियाणा के मामले के सारे तथ्यों की जानकारी नहीं है। साल्वे की बात से साफ होता है कि हरियाणा के कानून को टिकने के लिए कोर्ट में संघर्ष करना होगा, क्योंकि यहां मामला सरकारी नौकरी में आरक्षण का नहीं है, बल्कि निजी क्षेत्र की नौकरियों में आरक्षण का है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरएम लोढा कहते हैं कि प्राइवेट कंपनियां संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत राज्य की परिभाषा में नहीं आतीं। उन पर मौलिक अधिकार लागू करने का दबाव नहीं डाला जा सकता। संविधान के डायरेक्टिव पिंसिपल्स में रोजगार उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है। इसके लिए कानून का उद्देश्य और प्रावधान देखना होगा, लेकिन इतना जरूर है कि स्थानीय के लिए आरक्षण से बाहरी लोगों के अधिकार तो प्रभावित होते ही हैं। सरकार निजी क्षेत्र में स्थानीय कोटा घोषित कर रही है, इसलिए इसमें देखा जाएगा कि अनुच्छेद 14 में मिला बराबरी का अधिकार इससे प्रभावित होता है कि नहीं। कोर्ट में सबसे बड़ा पेंच निजी कंपनियों पर आरक्षण लागू करने को लेकर भी फंस सकता है।
पूर्व अटार्नी जनरल और वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी कहते हैं कि यहां प्राइवेट सेक्टर बड़ा मुद्दा है। महाराष्ट्र प्रापर्टी ओनर्स केस सुप्रीम कोर्ट की नौ न्यायाधीशों की पीठ में विचाराधीन है। उस केस में एक मुद्दा है कि क्या प्राइवेट रिसोर्स अनुच्छेद 39 के तहत आएंगे कि नहीं। उस मामले में सवाल आया था कि क्या मकान मालिक किरायेदार के केस में निजी संपत्ति भी अधिग्रहीत की जा सकती है। हरियाणा का मामला भी प्राइवेट इंडस्ट्री का है, इसलिए यह निश्चित तौर पर ज्यादा पेचीदा मुद्दा है। संविधान बराबरी की बात करता है। उसमें भेदभाव की मनाही है। आरक्षण अपवाद है जिसकी पूरी अवधारणा पीछे छूटे लोगों को बराबरी पर लाना है। आरक्षण में कोर्ट यही देखता है कि तर्कसंगत वर्गीकरण है कि नहीं। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश और विधि आयोग के पूर्व अध्यक्ष जस्टिस बीएस चैहान कहते हैं कि कोर्ट सभी पहलुओं को परखेगा।
अगर पूर्व के फैसलों पर निगाह डालें तो 1984 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रदीप जैन मामले में सन आफ सायल (धरती पुत्र) यानी निवास स्थान के आधार पर आरक्षण की चर्चा की थी। कोर्ट ने उसमें टिप्पणी की थी कि निवास के आधार पर नौकरी में आरक्षण की नीतियां असंवैधानिक हैं, लेकिन कोर्ट ने इस पर कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं दी थी, क्योंकि कोर्ट के सामने सीधे तौर पर यह मुद्दा नहीं था। इसके बाद 1995 में सुनंदा रेड्डी केस में सुप्रीम कोर्ट ने प्रदीप जैन मामले में की गई टिप्पणी पर मुहर लगाते हुए आंध्र प्रदेश सरकार की तेलुगु माध्यम से पढ़ने वालों को पांच फीसद अतिरिक्त वेटेज देने के नियम को रद कर दिया था। निवास स्थान मामला 2002 में भी आया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान की सरकारी शिक्षक भर्ती रद की थी। 2019 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने भर्ती अधिसूचना रद की थी जिसमें यूपी की मूल निवासी महिलाओं को प्राथमिकता की बात कही गई थी। स्पष्ट है कि हरियाणा के फैसले के लिए राह आसान नहीं है।
मेरा मानना है कि सरकार को एक सर्वे कराना चाहिए जिसमें यह देखा जाए कि जो औद्योगिक संस्थान पूर्ण सरकारी या अर्द्धसरकारी रूप से चल रहे है उनकी क्या स्थिति रही और जो औद्योगिक संस्थान प्राइवेट व्यक्ति चला रहे हैं उनकी क्या स्थिति रहती है। जहां तक मुझे लगता है एक व्यक्ति जब एक बस चलाता है सड़क पर तो साल भर में दो तो बना ही लेता है और सरकार जो बसे चलवाती है वो भले ही समय निर्धारित सीमा कितनी भी हो लेकिन एक साल में उनकी बसें बोलने लगती है। यह ऐसे तथ्य हैं जिन्हें समझने के बाद सरकार को निजी क्षेत्र में आरक्षण से दूर रखा जाना चाहिए। और झारखंड सरकार को संदेश दिया जाना चाहिए कि वो अन्य प्रदेशों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए वोटों की राजनीति के चक्कर में 75 प्रतिशत आरक्षण जैसे मुददे उछालना बंद करे। मुझे लगता है कि निजी आरक्षण देने के झंझट में ना पड़ सरकारों को इस श्रेणी में आने वाले नागरिकों को अन्य प्रकार के लाभ देने का प्रयास करते हुए उससे संबंध नीति बनानी चाहिए जिससे सभी को लाभ हो सकता है।

– रवि कुमार विश्नोई
सम्पादक – दैनिक केसर खुशबू टाईम्स
अध्यक्ष – ऑल इंडिया न्यूज पेपर्स एसोसिएशन
आईना, सोशल मीडिया एसोसिएशन (एसएमए)
MD – www.tazzakhabar.com

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