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गोविन्द देव जी का इतिहास.........

गोस्वामियों ने वृन्दावन आकर पहला काम यह किया कि वृन्दा देवी के नाम पर एक वृन्दा मन्दिर का निर्माण कराया। इसका अब कोई चिन्ह विद्यमान नहीं रहा। कुछ का कथन है कि यह सेवाकुंज में था। इस समय यह दीवार से घिरा हुआ एक उद्यान भर है। इसमें एक सरोवर है। यह रास मण्डल के समीप स्थित है। इसकी ख्याति इतनी शीघ्र चारों ओर फैली कि सन् 1573 ई० में अकबर सम्राट यहाँ आँखों पर पट्टी बाँधकर पावन निधिवन में आया था। यहाँ उसे ऐसे विस्मयकारी दर्शन हुए कि इस स्थल को वास्तव में धार्मिक भूमि की मान्यता उसे देनी पड़ी। उसने अपने साथ आये राजाओं को अपना हार्दिक समर्थन दिया कि इस पावन भूमि में स्थानीय देवता महनीयता के अनुरूप मन्दिरों की एक शृंखला खड़ी की जाए।

गोविंददेव, गोपीनाथ, जुगल किशोर और मदनमोहन जी के नाम से बनाये गये चार मन्दिरों की शृंखला, उसी स्मरणीय घटना के स्मृति स्वरुप अस्तित्व में आई। वे अब भी हैं किन्तु नितान्त उपेक्षित और भग्नावस्था में विद्यमान हैं। गोविंददेव का मन्दिर इनमें से सर्वोत्तम तो था ही, हिन्दू शिल्पकला का उत्तरी भारत में यह अकेला ही आदर्श था। इसकी लम्बाई चौड़ाई 100-100 फीट है। बीच में भव्य गुम्बद है। चारों भुजायें नुकीलें महराबों से ढ़की हैं। दीवारों की औसत मोटाई दस फीट है। ऊपर और नीचे का भाग हिन्दू शिल्पकला का आदर्श है और बीच का मुस्लिम शिल्प का। कहा जाता है कि मन्दिर के शिल्पकार की सहायता अकबर के प्रभाव के कुछ ईसाई पादरियों ने की थी।

यह मिश्रित शिल्पकला का उत्तरी भारत में अपनी किस्म का एक ही नमूना है। खजुराहों के मन्दिर भी इसी शिल्प के हैं। मूलभूत योजनानुसार पाँच मीनारें बनवाई गयीं थीं, एक केन्द्रीय गुम्बद पर और चार अन्य गर्भगृह आदि, पर गर्भगृह पूरा गिरा दिया गया है। दूसरी मीनार कभी पूरी बन ही नहीं पायी। यह सामान्य विश्वास है कि औरंगज़ेब बादशाह ने इन मीनारों को गिरवा दिया था। नाभि के पश्चिम की एक ताख के नीचे एक पत्थर लगा हुआ है जिस पर संस्कृत में लम्बी इबारत लिखी हुई है। इसका लेख बहुत बिगड़ा हुआ है। फिर भी इसका निर्माण संवत् 1647 वि० पढ़ा जा सकता है और यह भी कि रूप और सनातन के निर्देशन में बना था। भूमि से दस फीट ऊँचा लिखा है- [संदर्भ देखें] राजा पृथिवी सिंह जयपुर के महाराजा के पूर्वज थे। उसके सत्रह बेटे थे। उनमें से बारह को जागीरें दी गयीं थी। यह अम्बेर (आमेर-जयपुर) की बारह कोठरी कहलाती हैं। मन्दिर का संस्थापक राजा मानसिंह राव पृथिवीसिंह का पौत्र था।

औरंगजेब के राज से 1873 ई तक मन्दिर के र्जीणोध्दार का कोई प्रयास नहीं किया गया है। मंदिर को आसपास रहने वालों की दया पर छोड़ दिया गया था। वे इसमें से तोड़ फोड़ कर भवन का सामान भी ले जाते रहे। दीवारों पर बड़े-बड़े झाड़ उग आये। सर विलियम मूर की उपस्थिति में मथुरा के कलक्टर एफ० एस० ग्राउस ने मन्दिर को सुरक्षार्थ पुरात्तव विभाग को देना चाहा किन्तु उसने कोई अनुदान नहीं दिया। इसकी मरम्मत के लिए इसके संस्थापक जयपुर नरेश को लिखा गया। नरेश ने इंजीनियरों की कूत के अनुसार रू० 5000 स्वीकार कर लिये।

1873 ई० में इसकी मरम्मत का काम आरम्भ हुआ। औरंगजेब द्वारा बनवाई गई दीवार तुड़वा दी गई और मलवा उठवा दिया गया, जो मन्दिर की दीवारों के सहारे-सहारे लगभग आठ-आठ फीट की ऊँचाई तक जमा हो गया और प्लिन्थ (कुर्सी) की सुन्दरता को नष्ट कर रहा था। अनेक मकान मन्दिर की दीवारों के सहारे मन्दिर के आँगन में बन गये थे, वे गिरा दिये गये। इस प्रकार पूर्व और दक्षिण भाग के दो चौड़े विशाल रास्ते खोल दिये गये। पहले मन्दिर में प्रवेश के लिए संकरी और टेड़ी मेढ़ी गली ही थी, जहाँ से पूरे मन्दिर को देखा जा सकता था। नाभिस्थल के उत्तरी भाग में एक टूटे लिंटर को संभालने के लिये एक ईटों का खम्भा बनवा दिया गया था। वह भी गिरा दिया गया। टूटे हुए पत्थर के लिंटर को लोहे के तीन वोल्टों से कसकर साध दिया गया। दक्षिण दिशा में गुम्बद और मीनार वाली एक सुन्दर छतरी थी, जो मन्दिर के चालीस वर्ष बाद बनाई गयी थी। इसके बाद इस सूबे के शासक सर जॉन स्ट्रेची हुए। शासन ने सरकारी कोष से मन्दिर को कुछ अनुदान बाँध दिया था। इससे मन्दिर की पूरी छत की मरम्मत हो सकी। पूर्व का ऊपर का भाग बिल्कुल खस्ता हाल में था। वह उतार कर पुन: पूरा बनवाया गया। उत्तर के और दक्षिण के भागों को भी पुन: बनवाया गया। जगमोहन का भी जीर्णोध्दार कराया गया। स्ट्रेची के बाद आये सर जॉर्ज काउपर ने सन् 1877 ई० के मार्च माह तक मन्दिर को नया रूप दिया। इसमें कुल लागत रू० 38365 आई।

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