हे ईश्वर मैं तेरा धन्यवादी हूं
कि तूने मुझे औलाद नहीं दी।
भिवानी का पतराम गेट ।
कौन था सेठ पतराम जिसने ये दरवाजा बनवाया था।
हरियाणा का जिला भिवानी, जिसे हरियाणा की कांशी भी कहां जाता है में है पतराम दरवाजा। इस दरवाजे अंदर कुआ,मंदिर तालाब भी थे जो कभी एक सेठ पतराम ने बनवाये थे। लेकिन आज भौतिकवादी मानसिकता के कारण अतिक्रमण का शिकार होकर पतराम सेठ की सब निशानियां मिट चुकी है लेकिन उसका नाम शेष है। वैसे भिवानी में सेठ पतराम के बारे में शायद ही कोई जानकारी रखता हो। सेठ पतराम के बारे में कभी जो जानकारी मुझे मिली थी ।वह सांझा करने योग्य हैं।
लेकिन उससे पहले भिवानी के बारे में कुछ जान लें।
जब देहली पर तंवर, तोमर,तुवंर राजपूतों का आधिपत्य हुआ तो उनके साम्राज्य की सीमा वर्तमान अफगानिस्तान तक जा लगी। लगभग छ शतक तक शासन करने वाले तंवर बाद में कमजोर पङे और चौहानों के अधिन शासन करने लगे। हाँसी का इलाके में तंवर राजपूतों के अनेक गांव है व हाँसी इनका मुख्यालय था।
1192 में तराईन के युद्ध में सम्राट पृथ्वीराज चौहान के हार जाने के बाद हाँसी दुर्ग पर इस्लामिक ध्वज लहराने लगा। संघर्ष होते रहे। लेकिन जब कुतबुद्दीन ऐबक. छ महिने हाँसी किले में रुका और तलवार के दम पर इस इलाके में इस्लाम का प्रसार करने लगा तो उसने गांव के गांव तंवर राजपूतों को मुसलमान बना डाला । वह तंवर राजपूत रांघङ कहलाणे लगे।
उसी दौरान भिवानी कस्बा आबाद हुआ और अंग्रेजी शासन में व्यापारिक शहर बना , रेलवे-स्टेशन बन जाने से औद्योगिकरण हुआ तो मालामाल हो गया ।
राजस्थान के शेखावाटी के सेठों द्वारा आबाद भिवानी कभी बङी भिवानी कहलाती थी और वर्तमान बवानी खेङा छोटी भिवानी कहलाती थी।भिवानी हवेलियों मंदिरों, मठों से सजा भव्य नगर रहा है। यहां के नामी सेठ, साहुकार रहे हैं। तब एक से बढकर एक नामी सेठ भिवानी में हुए । इन्ही नामी सेठों में से एक सेठ थे पतराम व सेठ किरोङी मल भिवानी की पहचान बने। मंदिर, धर्मशाला,स्कूल, कालेज आज भी उनकी याद ताजा करते है। दिल्ली में भी किरोङीमल के नाम से संस्थान हैं।
1996 की बात है मै भिवानी के मेरे मित्र पत्रकार ईश्वर धामू जी से मिलणे भिवानी गया था जो पतराम गेट के अंदर ही रहते हैं।
मैं और धामू जी पतराम गेट के पास खङे थे वहां एक शानदार कुए को देखकर पतराम के बारे में पूछ बैठा तो उन्होंनें भरपूर जानकारी दी।
अब इससे पहले कि मै आपको सेठ पतराम के बारे में बताऊं जरा इस कहावत पर गौर करें।
पूत कपूत तो क्यूं धन संचय ,
पूत सपूत तो क्यूं धन संचय।
जरूरी नहीं पूत आपके नाम को चार चांद लगये, बट्टा भी लगा सकती है।
अब सेठ पतराम के बारे में बहुत ही प्रेरणादायक कहानी और फसाना सामने आया।
पत्रकार श्री ईश्वर धामू जी ने यूं बताया था कि भिवानी में बहुत से नामी ,दानी धनकुबेर सेठ हुए हैं । जिनके दुनिया से चले जाने के बाद भी उनके करवाये गये जनहित के कार्य उनके नामों को आज भी बरकरार रखे हुए हैं।
ऐसे नामी सेठ किरोड़ी मल और पतराम भी थे। जिनके धन के भंडार लबालब भरे थे । जिन्होने दिल खोल कर दोनों हाथों दान किया स्कूल,कालेज, धर्मशाला, मंदिर,कुए,तालाब,बावड़ी बनवाये।
जो आज भी लोगों को सेवा दे रहे है।
लेकिन कुछ होते हुए भी अगर इन सेठों के पास नहीं था तो एक कुल चिराग जो उनके घर आंगन को रोशन रखता। बस यही एक गम था जो रोशन जहान मे भी अंधेरे का ऐहसास करवाता था। पित्र पूजे,देव पूजे तीर्थ किये मन्नतें मांगी लेकिन एक औलाद ईश्वर ने नहीं दी इसी गम को लेकर सेठ पतराम अपनी अर्धांगिनी के साथ हर साल तीर्थ यात्रा पर जाते कि शायद रुठा भगवान कुछ दया करे और गोद हरी हो जाये।
ये वह दिन थे जब रास्ते न तो पक्के थे और न उन पर सरपट वाहन दौड़ लगाते थे।कच्चे रास्तों पर रथ, मझौली ,बैलगाड़ी,ऊंट गाड़ी ,पालकी में बैठकर पूरे काफिले और साजो सामान के साथ थका देने वाली यात्रा कर यात्री मंजिल पर पहुंचते थे।
ऐसे में पथिकों के लिये मेहबान सेठ, साहुकार या राजा, जागीरदार रास्तों पर सराय,धर्मशाला, कुए, बावड़ी बनवाना धर्म का कार्य मानते थे ताकि मिलों यात्रा तय करने वाले राहगीर इन स्थानों और सुविधाओं का लाभ उठाकर अपनी कष्टमय यात्रा में थोड़ा सकून पा सकें। और इन्हें बनवाने वालों के लिये ईश्वर से सुखद कामना कर सकें।
ऐसी धर्मशालाओं में रहने, खाने पीने , काफिले के जानवरों के लिये चारा जैसी सभी जरूरी सुविधाएओं का बंदोबस्त कभी बहुत सेठ करवाना पुण्य का और शौहरत का काम मानते थे ताकि मुसाफिर उनका गुणगान कर सकें। इस सब के लिये इन पनागाहों में जरूरी स्टाफ भी रखा जाता था। शुल्क नहीं लिया जाता था हां अपनी मर्जी से मुसाफिर जो भी दे दे उसे स्वीकार कर लिया जाता था।
हाँसी जींद रोड़ पर माजरा प्याओ ऐसी ही एक जगहं अभी हाल तक देखी जाती थी।
ऐसी सराय के बारे में विस्तार से जानने के लिये हिंदी फिल्म
परणिति
जरूर देखें।
खैर बात सेठ पतराम की हो रही थी।
सेठ जी जब भी तीर्थ यात्रा पर जाते तो रास्ते मे एक सराय मे रुकते थे जहां हर प्रकार की सुविधाएं मुहैया थी।
एक बार जब वो अपनी वार्षिक तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे तो उस धर्मशाला में पहुंचे जहां वो हर साल रुकते थे। लेकिन इस बार कुछ ऐसा हुआ कि सेठ पतराम भी चौक गये।
जैसे ही उनका कारंवा वहा आकर रूका तो धर्मशाला के मुंशी ने सेठ पतराम के मुनीम से संपर्क किया और पूछा कि कितने सेठ के परिवार के लोग है, कितने नौकर, रक्षक, आदि स्टाफ है कितने पशु है। कितने दिन रुकना है ? किसको क्या खाना है पशुओं का कितना चारा चाहिए आदि आदि ? जब इसका कारण पूछा कि इससे पहले तो यहां कभी ऐसी तहकीकात नहीं हुई इस बार क्यों हो रही है तो ? धर्मशाला के मुंशी ने मुनीम को बताया कि इस धर्मशाला को बनवाने वाले सेठ जी गुजर चुके है। अब उनका इक्लौता बेटा करोबार संभाल रहा है । उसी का आदेश है कि फ्री में किसी भी यात्री को यहां नही रहने दिया जाये। जैसी सुविधा वैसा शुल्क वसूला जाये।
जब ये बात मुनीम ने सेठ पतराम को बताई तो सेठ जी का माथा ठनका वो समझ गये कि जो बेटा बाप के बनाये नियम को बदल कर अब यात्रियों से वसूली करने लगा है वो जरुर इस धर्मशाला को भी बेच सकता है।और उन्होंने धर्मशाला के मुशीं को कहा कि सेठ के बेटे को को बुलवा लो हम ये धर्मशाला खरीदना चाहते है।
पैगाम मिलते ही सेठ का बेटा वहाँ हाजिर हो गया। पतराम सेठ ने जो सोचा था वह सही निकला बेटे बाप की बनवाई धर्मशाला को उसने सेठ पतराम को बेच दी। इस प्रकार बिकती सराय को देख कर उसकी मुंशी दुखी था उसे लग रहा है कि अब उसकी नौकरी भी गई लेकिन सेठ पतराम ने उसी मुंशी और स्टाफ को बरकरार रखते हुए मुंशी को कहा कि धर्मशाला की व्यवस्था पहले की जैसी ही रखी जाये और इसके बाद सेठ पतराम ने अपनी तीर्थ यात्रा को यहीं विराम दिया और काफिले के साथ वापिस भिवानी आ गये।
इस बार वो बहुत संतुष्ट थे ।ऐसा लग रहा था कि उनकी मन की मुराद पूरी हो गई है।
सेठ जी ने चंद दिनो में अपनी पूंजी, संपत्ति दान कर दी और एक दिन शुभ महुरत पर भिवानी में अपने बनवाये तालाब मे अपनी अर्धांगनी सहित प्रातः नहाकर तालाब के पानी मे खङे होकर सूर्य भगवान की तरफ मुंह कर हाथ जोड़ कर कहा।
हे भगवान हमे आज तक तेरे से बहुत शिकायत थी कि तूने हमें औलाद नहीं दी।
पर अब हम पूरी तरंह से संतुष्ट हैं और खुश है कि तूने हमें औलाद नहीं दी। अब हमें तुझसे कोई शिकायत नहीं है , हम तेरे ऐहसानमंद कि तूने कुछ सोचकर ही हमे औलाद नहीं दी है।
पत्रकार ईश्वर धामू जी ने आगे बताया कि इसके बाद सेठ जी ने अपने कारोबार का लेनदेन निपटाया। कुल जमां पूंजी दान की व धर्मार्थ कार्यों में लगा। हर तर्ह से संतुष्ट होकर एक दिन सुबह मुंह अंधेरे सेठ पतराम अपनी अर्धांगिनी सहित बिना किसी को कुछ भी बताये कहाँ गये किसी को खबर नहीं लगी।
सेठ पतराम तो नहीं रहे लेकिन उनके द्वारा करवाये गये लोकहित के कार्य उनके नाम को आज भी बरकरार रखे हुए है।
समझ गये न सेठ जी उस सराय को खरीद कर समझ गये थे कि कि न जाने औलाद कैसी निकले जो उसके यश को ओर बढाये या नाम पर कालिख पोतकर अपयश दे? तब वह ईश्वर के न्याय से संतुष्ट हो चुके थे कि उनके यहि संतान का पैदा न होना ईश्वर का बेहतर निर्णय है । वह संतुष्ट हो गये थे।
खैर ये तो बात भिवानी की है।
आपको यह जानकारी कैसी लगी।
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जगदीश
98 963 66321
धन्यवाद।