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अपने ही शहर.में अंजान हो गया।

शहर वही सड़कें वहीं सब
मौहल्ले, गलियां,मकान वहीं हैं।
चौक, चौराहे, बाजार हाट सब
बाग,बगीचे, पेङ वहीं हैं।
तीज और तैयार वही सब,
रस्में और रिवाज वही हैं।
चेहरे लगते थे अपने जो
दिखते वो सब कहीं नहीं हैं।
वक्त ने मंजर बदला कितना ,
गले लग कर मिलनेवाले
संगी, साथी, मित्र सारे
आते नजर वो कोई नहीं है?
भीड़ बहुत है,लोग बहुत हैं
अपना दिखता कोई नहीं है।
देख नजारा शहर का मेरे,
हैरान हो परेशान बङा हूं।
अपने ही शहर में,आज मैं,
होकर के अंजान खड़ा हूं।
जगदीश,हाँसी 98 963 66321

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