जंगल सा बसता शहर विरान होता गांवों का मकान
"-जंगल सा बसता शहर विरान होता गांवों का मकान-"
एक तड़प मेरे भी कभी, कोई तो सहजता से सुन लेता ।
दर्द क्या क्यों हो रहा सर पर हाथ रखकर पुछ परख लेता ।।
शिष्टाचार से मुख मोड़ा धन दौलत, में सब कुछ पाया।
सुकून का जीवन छोड़कर आपाधापी को गले लगाया।।
खेती किसानी को छुड़ाने बच्चों पर छोड़े अपने अरमान।
जंगल सा बसता शहर विरान होता गांवों का मकान।।
पैसों से सब कुछ मिलता गांवों के हद छोड़ रहा जवान।
पढ़ लिखकर मिटटी की खुशबू से बनता जा रहा अंजान ।।
जन्म लिया जिस मिट्टी पर पहचान उसी का भूल रहा।
आदर्श अपने माता पिता के संदेशों से नाता तोड रहा।।
आज परिवार के रिश्ते नाते को सम्मान नहीं कर पाते हैं।
संस्कृति विवाह विधि विधान का मजाक बनाते जाते हैं।।
पाश्चात्य देशों की संस्कृति आडंबर को सहज अपनाया है।
फिल्म,सिरियल,की कहानियों पर ही विश्वास दिखाया है ।।
कहां जा रहा सभ्यता अपनी संस्कृति का हो रहा सत्यानाश।
बड़ी विडंबना है युवाओं में नहीं रहा अपनों पर विश्वास।।
कहीं न कहीं हम और समाज भी इसके लिए जिम्मेदार है।
प्रशासन का लचीलापन, कानून में भी कुछ तो दरार है।।