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पश्चिम बंगाल के लोगों में दुर्गा पूजा का महत्व

रामनवमी का दिन हो और भगवान श्री राम के समुद्र तट पर अपने आराध्य भगवान कैलाशपति शिव जी को प्रसन्न करने हेतु मां दुर्गा की विशिष्ट पूजा की जिससे भगवान श्री राम को वैराग्य चेतना के फल स्वरुप वह लंकापति रावण को मार कर "असत्य पर सत्य की जीत" मानव जीवन में एक विशिष्ट उदाहरण दिया जिससे वह राम ही आराध्या श्री राम की श्रेणी में हर इंसान के मन में विराजित है
गणेश नगर पांडव नगर कालीबाड़ी मंदिर के पदाधिकारी द्वारा हमें बताया गया कि बंगाल में आखिर कब शुरू हुई थी दुर्गा पूजा, जानिए किसने किया था देवी महिषासुरमर्दिनी का आह्वान......
दुर्गा पूजा का प्रथम प्रचलन:- हर साल पूरी दुनिया कई देशों से लोग बंगाल की दुर्गापूजा देखने आते हैं। आज भव्य मंडप, चकाचौंध कर देने वाली रोशनी के बीच चमचमाती मां दुर्गा की प्रतिमा होती है लेकिन क्या आप जानते हैं कि बंगाल की यह भव्य दुर्गापूजा कब शुरू हई ?
कोलकाता: पश्चिम बंगाल की दुर्गापूजा आज विश्व प्रसिद्ध है। हर साल पूरी दुनिया कई देशों से लोग बंगाल की दुर्गापूजा देखने आते हैं। आज भव्य मंडप, चकाचौंध कर देने वाली रोशनी के बीच चमचमाती मां दुर्गा की प्रतिमा होती है लेकिन क्या आप जानते हैं कि बंगाल की यह भव्य दुर्गापूजा कब शुरू हई ? किसने पहली बार दुर्गापूजा की थी? आखिर दुर्गापूजा करने का कारण क्या था? सनातन धर्मानुसार इतने देवताओं के होने के बाद 10 भुजा वाली मां दुर्गा की पूजा ही क्यों? ऐसे कई सवाल लोगों के मन में उठते हैं तो आईए बतातें हैं आपको बंगाल की दुर्गा पूजा वृहत इतिहास। इतिहास के गलियारों से बंगाल के पहली दुर्गापूजा के पीछे की बड़ी और रोचक कहानी....
बंगाल के इतिहास के पन्नों को पलटें तो हमें पता चलता है कि लगभग 16वीं शताब्दी के अंत में 1576 ई में पहली बार दुर्गापूजा हुई थी। उस समय बंगाल अविभाजित था जो वर्तमान समय में बांग्लादेश है। इसी बांग्लादेश के ताहिरपुर में एक राजा कंसनारायण हुआ करते थे। कहा जाता है कि 1576 ई में राजा कंस नारायण ने अपने गांव में देवी दुर्गा की पूजा की शुरुआत की थी। कुछ और विद्वानों के अनुसार मनुसंहिता के टीकाकार कुलुकभट्ट के पिता उदयनारायण ने सबसे पहले दुर्गा पूजा की शुरुआत की। उसके बाद उनके पोते कंसनारायण ने की थी। इधर कोलकाता में दुर्गापूजा पहली बार 1610 ईस्वी में कलकत्ता में बड़िशा (बेहला साखेर का बाजार क्षेत्र) के राय चौधरी परिवार के आठचाला मंडप में आयोजित की गई थी। तब कोलकाता शहर नहीं था। तब कलकत्ता एक गांव था जिसका नाम था 'कोलिकाता'।
अश्वमेघ यज्ञ का विकल्प बनी दुर्गापूजा
विवेकानंद विश्वविद्यालय में संस्कृत और दर्शन के प्रोफेसर राकेश दास ने बताया कि राजा कंसनारायण ने अपनी प्रजा की समृद्धि के लिए और अपने राज्य विस्तार के लिए अश्वमेघ यज्ञ की कामना की थी। उन्होंने यह इस बात की चर्चा अपने कुल पुरोहितों से की। ऐसा कहा जाता है कि अश्वमेघ यज्ञ की बात सुनकर राजा कंस नारायण के पुरोहितों ने कहा कि अश्वमेघ यज्ञ कलियुग में नहीं किया जा सकता। इसे भगवान राम ने सतयुग में किया था पर अब कलियुग करने का कोई फल नहीं है। इस काल में अश्वमेघ यज्ञ की जगह दुर्गापूजा की जा सकती है। तब पुरोहितों ने उन्हें दुर्गापूजा महात्मय बारे में बताया। पुरोहितों ने बताया कि कलियुग में शक्ति की देवी महिषासुरमर्दिनी मां दुर्गा की पूजा करें। मां दुर्गा सभी को सुख समृद्धि, ज्ञान और शाक्ति सब प्रदान करती हैं। इसी के बाद राजा कंसनारायण ने धूमधाम से मां दुर्गा की पूजा की। तब से आज तक बंगाल में दुर्गापूजा का सिलसिला चल पड़ा।
देवी भागवतपुराण में है दुर्गापूजा का उल्लेख
प्रोफेसर राकेश दास ने बताया कि इतिहास के अनुसार राजा कंसनारायण की पूजा के पहले दुर्गापूजा की व्याख्या देवी भागवतपुराण और दुर्गा सप्तशती में मिलती है।दुर्गा सप्तशती और देवी भागवतपुराण में शरद ऋतु में होने वाली दुर्गापूजा का वर्णन है। देवी भागवतपुराण में इसका भी उल्लेख है कि भगवान राम ने लंका जाने से पहले शक्ति के लिए देवी मां दुर्गा की पूजा की थी। देवी भागवत पुराण की रचना की तिथि पर विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वानों का मानना है कि यह एक प्राचीन पुराण है और छठवीं शताब्दी ईस्वीं से पहले रचा गया था। कुछ के अनुसार इस पुस्तक की रचना 9वीं और 14वीं शताब्दी के मध्य ई. बीच हुई थी।
4 अलग-अलग विधियों से होती है दुर्गापूजा
बंगाल में साढ़े 550 साल से अधिक पुरानी पूजा में विधियों को लेकर थोड़ा परिवर्तन हुआ है। फिर भी राज परिवारों में होने वाली पारंपरिक दुर्गापूजा चार अलग अलग विधियों में होती है। विद्वानों की माने तो पहली विधि कालिकापुराण की विधि के अनुसार है। दूसरी विधि वृहतनंदीकेश्वर विधि के अनुसार है। तीसरी विधि देवीपुराण के अनुसार और चौथी व आखिरी विधि मत्स्य पुराण के अनुसार है। राज्य के हर जिलों में होनी वाली इन्हीं चार विधियों में होती है। फिलहाल पूजा की मूल विधियां समान है पर अब थोड़ा बहुत अंतर है।

भाद्र कृष्णपक्ष की नवमी को ही शुरू होती है पूजा
रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के प्रोफेसर सुब्रत मंडल ने बताया कि बंगाल की सदियों पुरानी पारंपरिक दुर्गापूजा भाद्र मास के कृष्णपक्ष की नवमी को ही शुरूहो जाती है। हिसाब से यह पितृ पक्ष में ही पड़ती है। कोलकाता के शोभाबाजार राजबाड़ी, बांकुड़ा जिले के विष्णुपुर के प्रसिद्ध राजपरिवार की दुर्गा पूजा भी इसी दिन से शुरू हो जाती है। इसके बाद षष्ठी के दिन मां दुर्गा का बोधन होता है। इसमें मां दुर्गा का आह्वान किया जाता है और बेल के पेड़ की पूजा की जाती है। सप्तमी के दिन नवपत्रिका पूजा होती है। इस नवपत्रिका पूजा में धान, मान अरवी, अरवी, हल्दी का पेड़, जयंती, अशोक, अनार की डाली और बेल की डाली को केले के पेड़ के साथ बांधकर पूजा की जा जाती है। उसके बाद गंगा में स्नान करवाया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि नवपत्रिका पूजा मां दुर्गा के नौ रूपों की प्रकृति की शक्ति स्वरूपा पूजा है। उसके बाद अष्टमी नवमी की संध्या को संधि पूजा होती है। दशमी के दिन पारंपरिक रूप में माता दुर्गा का विसर्जन होता है। सिंदूर खेला और मूर्ति विसर्जन और दशहरा मनाया जाएगा। दुर्गा पूजा के आखिरी दिन ही सिंदू खेला पर्व मनाया जाता है। इस दिन महिलाएं बुजुर्ग बच्चे व हर इंसान मां दुर्गा को सिंदूर अर्पित करता है और एक-दूसरे को भी सिंदूर लगाता हैं।

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