बिहार में बाढ़ और सरकार की नाकामी: वादों से ज़मीनी हक़ीक़त तक।
बिहार, एक राज्य जो हर साल बाढ़ की विभीषिका से जूझता है, एक बार फिर से खतरनाक बाढ़ की चपेट में है। लाखों लोग बेघर हो चुके हैं, हजारों गांवों में पानी घुस चुका है, और किसान अपनी फसलें बर्बाद होते हुए देख रहे हैं। लेकिन यह त्रासदी केवल प्रकृति की देन नहीं है; इसके पीछे सरकारी उदासीनता और नेताओं की खोखली वादों की कहानी छिपी है।
चुनाव के दौरान बड़ी-बड़ी घोषणाएं की जाती हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार में चुनाव प्रचार के समय एक लाख करोड़, सवा लाख करोड़ के पैकेज की नीलामी की बात की थी। तब ऐसा लग रहा था कि बिहार विकास के पथ पर तेजी से आगे बढ़ेगा, और बाढ़ जैसी समस्याओं से राज्य को निजात मिलेगी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी लगातार केंद्र से विशेष पैकेज की माँग करते रहे, ताकि राज्य की बाढ़ की समस्या का स्थायी समाधान किया जा सके।
लेकिन चुनाव बीत जाने के बाद हालात कुछ और ही नजर आते हैं। जिन नेताओं ने चुनाव के समय बड़े-बड़े वादे किए थे, वे आज इस मुश्किल समय में कहीं नज़र नहीं आ रहे हैं। बाढ़ से प्रभावित लोग राहत सामग्री के लिए तरस रहे हैं, सरकारी योजनाएँ कागजों पर ही सीमित हैं, और जनता हताश होकर अपनी किस्मत को कोस रही है।
जहाँ प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार के लिए एक समय में बड़े पैकेज की घोषणा की थी, वहीं आज वह पैकेज केवल एक सपना बनकर रह गया है। दूसरी तरफ, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी केंद्र से मदद की गुहार लगाते रहते हैं, लेकिन हकीकत में लोगों तक राहत पहुँचाने में पूरी तरह विफल दिखते हैं।
बिहार जैसे राज्य, जो पहले से ही गरीबी और बेरोजगारी से जूझ रहा है, वहाँ बाढ़ जैसी आपदाएँ और भी अधिक विकराल रूप ले लेती हैं। हर साल लोग घर, खेत और पशुधन खोते हैं, और सरकारें कागजी योजनाओं और अनियमित राहत कार्यों से जनता को बहलाने का काम करती हैं।
बिहार की बाढ़ एक स्थायी समस्या बन गई है और हर बार की तरह इस बार भी सरकारें जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही हैं। चुनावी वादों की चमक के पीछे छिपी यह कड़वी सच्चाई है कि जब तक बिहार की बाढ़ जैसी समस्याओं का स्थायी समाधान नहीं निकाला जाता, तब तक जनता इसी तरह हर साल पीड़ित होती रहेगी। नेताओं की जवाबदेही केवल चुनाव तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि बाढ़ जैसी आपदाओं के समय भी उन्हें अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। लेकिन जब वादे हकीकत में तब्दील नहीं होते, तो जनता खुद को असहाय महसूस करती है, और यही बिहार की मौजूदा स्थिति है।