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आधुनिकता के बोझ तले विस्मृत होती सांस्कृतिक धरोहर सांझी

जयपुर/सवाई माधोपुर। सांझी कला 16वीं शताब्दी की एक शिल्पकला है जिसकी उत्पत्ति आज के उत्तर प्रदेश के मथुरा में हुई थी.

सांझी मूलतः संध्या देवी को रिझाने का महोत्सव है। श्राद्ध यानी पितृ पक्ष में एक ओर कुंवारी कन्याएं सांध्य देवी की पूजा घरों के दरवाजे पर सांझी बनाकर पूजा करती हैं। दूसरी ओर, अपने पितरों के प्रति श्रद्धा, आदर भाव व्यक्त करने के लिए पितृ पक्ष में गोबर की सांझी बनाए जाने की परम्परा रही है ।

राजस्थान में सांझी कला के एक रूप जल सांझी को देखा जा सकता है. यह कला उदयपुर के कुछ चुनिंदा कृष्ण मंदिरों में पितृ पक्ष के दौरान बनाई जाती है ।

सांझी पर्व राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश, मालवा, निमाड़ तथा अन्य कई राज्य में मनाया जाता है।

व्रज की मंदिर परंपरा में सांझी :-भगवान कृष्ण की मातृभूमि व्रज की एक पारंपरिक कला के रूप में, सांझी आंतरिक रूप से दिव्य युगल कृष्ण और राधा की पारलौकिक क्रीड़ाओं से जुड़ी हुई है, जिनके प्रेम की क्रीड़ा को सांझी डिजाइनों में दर्शाया गया है। वैष्णव धर्मशास्त्र सांझी की उत्पत्ति को दिव्य लीला से ही जोड़ता है ।

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