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कामरेड सीताराम येचुरी : एक महत्वपूर्ण आवाज़ खामोश हो गई

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव सीताराम येचुरी नहीं रहे। 72 बरस की आयु में उन्होंने अंतिम सांस ली और इस तरह देश में लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए हमेशा तत्पर रहने वाली एक बुलंद आवाज़ शांत हो गई। हालांकि पचास बरसों से सुदीर्घ राजनैतिक जीवन में सीताराम येचुरी जिन मूल्यों के साथ काम करते रहे, उनकी गूंज बरसों-बरस बनी रहेगी, ऐसी उम्मीद है।

सीताराम येचुरी भारतीय राजनीति के उन चंद महत्वपूर्ण नामों में से एक थे, जिन्होंने संसद से सड़क तक जनता के हितों की रक्षा और संवैधानिक मूल्यों के लिए राजनीति की। श्री येचुरी के लिए राजनीति दुनिया को एक बेहतर जगह बनाने का जरिया थी। वे एक बेहतरीन वक्ता थे और लगभग सभी दलों के साथ, वैचारिक मतभेदों के बावजूद उनके सौहाद्रपूर्ण संबंध थे। संसद में उनके भाषणों को गौर से सुना जाता था। 1974 में स्टूडेंट्स फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडिया यानी एसएफ़आई से उनके राजनैतिक जीवन की शुरुआत हुई, 1975 में वे सीपीएम के सदस्य बन गए। दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज से स्नातक करने के बाद वे आगे की पढ़ाई के लिए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में दाख़िल हुए और यहां प्रकाश करात के साथ मिलकर वामपंथ का मजबूत गढ़ बनाने का काम उन्होंने किया। 1978 में श्री येचुरी एसएफ़आई के संयुक्त सचिव बने और 1979 में अध्यक्ष। वे पहले अध्यक्ष थे, जो केरल या बंगाल के बाहर से थे।

श्री येचुरी जब जेएनयू से अर्थशास्त्र में डॉक्टरेट की पढ़ाई कर रहे थे, तभी इंदिरा गांधी सरकार ने 1975 में आपातकाल लगाया और उन्हें कई अन्य नेताओं के साथ गिरफ़्तार कर लिया गया था। इस वजह से उनकी पीएचडी अधूरी रह गई। जेल से बाहर आने के बाद सीताराम येचुरी जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए। 1992 में उन्हें पोलित ब्यूरो का सदस्य चुना गया। श्री येचुरी 32 वर्षों तक सीपीएम के पोलित ब्यूरो के सदस्य रहे। 2015 में वे पार्टी के महासचिव बने और इसके बाद 2018 फिर 2022 में इसी पद के लिए फिर से चुने गए। सीताराम येचुरी 2005 से 2017 तक राज्यसभा सांसद भी रहे।

अपने सुदीर्घ राजनैतिक जीवन में सीताराम येचुरी ने आपातकाल से लेकर गठबंधन सरकारों के दौर देखे। 1996 में जब संयुक्त मोर्चा सरकार बनी, तब वे उन नेताओं में शामिल थे, जिन्होंने साझा न्यूनतम कार्यक्रम का मसौदा तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी। दरअसल श्री येचुरी ने पार्टी के दिवंगत नेता हरकिशन सिंह सुरजीत के मार्गदर्शन में काम सीखा था, जिन्होंने गठबंधन युग की सरकार में प्रमुख भूमिका निभाई थी। उनके निर्देशन में सबसे पहले वी पी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार और 1996-97 की संयुक्त मोर्चा सरकार बनी, दोनों ही सरकारों को माकपा ने बाहर से समर्थन दिया था। सीताराम येचुरी ने अपने कौशल को तब और निखारा जब वामपंथी दलों ने 2004 में पहली यूपीए सरकार का समर्थन किया और अक्सर नीति-निर्माण में कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार पर दबाव डाला।

आपातकाल में जेल जाने से लेकर कांग्रेस को सरकार बनाने तक सभी तरह के राजनैतिक उतार-चढ़ाव के साक्षी सीताराम येचुरी रहे हैं। इस देश के लोगों को वह तस्वीर याद है, जब जेएनयू की चांसलर पद से इंदिरा गांधी के हटने की मांग लेकर जेएनयू के छात्र उन्हीं के आवास के बाहर पहुंचे थे। तब इंदिरा गांधी के सामने ही उनके इस्तीफ़े की मांग और विरोध का ज्ञापन सीताराम येचुरी ने पढ़ा था। तब इंदिरा गांधी को तानाशाह बताया जा रहा था कि लेकिन असल में वहां भारतीय लोकतंत्र की मजबूती प्रदर्शित हो रही थी। अब ऐसी तस्वीर की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सीताराम येचुरी ने घोषित आपातकाल और अघोषित आपातकाल के फ़र्क को करीब से महसूस किया। जब देश में 2014 के बाद भाजपा के बहुमत वाली सरकार के दौरान एक नये तरह की राजनीति शुरु हुई, जिसमें जनता की आवाज के लिए कोई जगह दिखाई नहीं देती है, उस पीड़ा को सीताराम येचुरी ने संसद के अपने भाषणों में व्यक्त किया। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 खत्म करने का फ़ैसला हो, या नोटबंदी का आकस्मिक ऐलान हो या राम मंदिर के उद्घाटन में धर्मनिरपेक्षता की राह पर डटे रहने की प्रतिबद्धता हो, सीताराम येचुरी ने बिना किसी लाग-लपेट के भाजपा सरकार को आईना दिखाने का काम किया।

राजनीति के इस मौजूदा दौर में जब मूल्यपरक राजनीति की जरूरत पहले से कहीं अधिक महसूस की जा रही है, जब अधिनायकवाद के खतरे बढ़ रहे हैं और देश की एकता और अखंडता के नाम पर नए तरह के विचार थोपे जा रहे हैं, तब येचुरी जैसे नेताओं की कमी बेहद खलेगी। क्योंकि सुलझे हुए, मुद्दों की जानकारी रखने वाले, संवेदनशील और बौद्धिक नेता अब गिने-चुने ही रह गए हैं। देश में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने सीताराम येचुरी के निधन पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए बिल्कुल ठीक लिखा है कि वे 'आइडिया ऑफ़ इंडिया' के संरक्षक थे, जिन्हें देश की गहरी समझ थी।

भारत के विचार, उसकी पहचान को समझने वाले सीताराम येचुरी के निधन से भारतीय राजनीति में एक ऐसी रिक्तता आ गई है, जिसे भरा जाना आसान नहीं होगा। वामपंथ के लिए भी उनका जाना अपूरणीय क्षति है, क्योंकि वैचारिक संपन्नता के साथ जनता से जुड़ी राजनीति करने का उनका कौशल अनूठा था। देशबन्धु, डीबीलाइव में 4 अगस्त को सीताराम येचुरी का साक्षात्कार प्रसारित हुआ था, जो उनका किसी चैनल को अंतिम साक्षात्कार था, इसमें उन्होंने देश के मौजूदा हालात पर विस्तार से अपने विचार रखे थे। आज उन्हीं विचारों को अमल में लाने की ज़रूरत है। सीताराम येचुरी की जनहितकारी प्रतिबद्धता राजनीति में जीवित रहे, यही उन्हें सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी।

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