भीड़ का हिस्सा या इतिहास का !
संसार, एक के पीछे एक चलने की भीड़ की कहानी मात्र है। यहां सभी एक-दूसरे को पकड़े हुए चलना चाहते हैं। कोई एक बार आंख खोलकर देख ले कि यह रास्ता कहीं जाता नहीं, घुमफिर कर वही पहुंच जाता है, तो 'वह' उसी तरह भीड़ का हिस्सा नहीं रह पायेगा, जैसा पहले रहता था। तब उसे चलने या अपने मंजिल तक पहुंचने के लिए रास्ता ठीक से दिखाई देने लगता है।
अब समस्या यह आती है कि वह बंधी-बंधाई चेन में चलता रहे या उस चेन को छोड़कर वास्तविक/विकास-यात्रा पर कदम रखे। भीड़ की चेन में चलते रहने पर, सबके साथ सुरक्षा का एहसास होता है, लेकिन जो रास्ता कहीं पहुंचाता न हो, आंख वाले के लिये निरर्थक ही है। यदि वास्तविक मार्ग पर चलने का प्रयत्न करता है तो भीड़ की निन्दा या तिजारत को अकेले झेलना पड़ता है।
अकेलेपन और अवहेलना के भय से अनेक अपना मार्ग चुनने से भयभीत रहकर, जीवन व्यर्थ कर देते हैं। यह सत्य है कि जिसने भी भीड़ के विपरीत अपने मार्ग को निर्धारित किया है, उसे प्रारम्भ में अवहेलना/तिरस्कार/निन्दा ही मिली है। यदि वह उत्साह से आगे बढ़ा तो लोगों ने, भीड़़ ने, और दुनिया ने उसकी टांग ही खींची है। पर जब वह अपनी मंजिल को पा लेता है, संसार उसका अनुगामी हो जाता है। अतः इन निन्दा करने वालों के प्रति मन में कभी आक्रोश नहीं पालना चाहिए। याद रखें कि उनकी इसी निन्दा की कसौटी ने ही हमें बढ़ने का उत्साह, साहस एवं उमंग दिया था।