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रामचरित मानस में भक्तियोग।

रामचरितमानस में भक्तियोग की व्याख्या तुलसीदास ने अत्यंत सुंदर तरीके से की है। भक्तियोग का तात्पर्य भगवान के प्रति अनन्य प्रेम और समर्पण से है। रामचरितमानस में यह योग भगवान राम के प्रति भक्ति के रूप में प्रकट होता है, जो चार प्रकार की होती है:साक्षात्कार-पूर्व भक्तियोग: यह भक्ति का प्रारंभिक स्तर है जहाँ भक्त भगवान की महिमा और लीला सुनकर उनके प्रति आकर्षित होते हैं। यहां भक्त के हृदय में भगवान की उपासना का बीज अंकुरित होता है।साधना भक्तियोग: इस चरण में भक्त भगवान की प्राप्ति के लिए साधन, जैसे कि जप, तप, ध्यान और सेवा आदि करते हैं। यहां भगवान की प्राप्ति के लिए व्यक्ति अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास करता है।परिपक्व भक्तियोग: यह भक्ति का उच्च स्तर है जहाँ भक्त भगवान के प्रति पूर्णतः समर्पित हो जाते हैं और उनकी सेवा में लीन हो जाते हैं। यहां भक्त के मन में भगवान के प्रति अत्यंत प्रेम और आस्था होती है।परमहंस भक्तियोग: यह भक्ति का चरम स्तर है, जिसमें भक्त और भगवान का पूर्णतः अभेद हो जाता है। भक्त इस स्थिति में भगवान की माया से मुक्त होकर भगवान के स्वरूप में ही स्थित हो जाता है।रामचरितमानस के अरण्य कांड और सुंदरकांड में हनुमानजी की भक्ति को भक्तियोग का सर्वोत्तम उदाहरण माना जाता है। हनुमानजी का समर्पण, सेवा भाव, और भगवान राम के प्रति अनन्य प्रेम भक्तियोग के आदर्श रूप को दर्शाता है।तुलसीदास जी ने यह स्पष्ट किया है कि भक्ति मार्ग किसी भी जाति, धर्म, या सामाजिक स्थिति के भेदभाव के बिना सभी के लिए सुलभ है। इसके लिए केवल निष्कपट हृदय से भगवान की भक्ति ही आवश्यक है। इस प्रकार रामचरितमानस में भक्तियोग का विस्तार बहुत ही सरल और प्रभावी रूप में किया गया है, जो हर व्यक्ति के लिए सुलभ और अनुकरणीय है।

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