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मृत्यु भोज पर लेख (1) सत्य कथा

मृत्यु भोज पर लेख (1) (सत्य कथा)

लेखक: घेवरचन्द आर्य पाली

सामाजिक कुरीतियां यथा बीड़ी, सिगरेट, जर्दा, खैनी, अफीम की मनुहार और मृत्यु भोज पर लेखक घेवरचन्द आर्य पाली का ज्ञानवर्धक लेख अवश्य पढ़ें। एक थी लक्ष्मीदेवी शर्मा, 1976 में ही पति भलाराम जी का कैंसर से लड़ते हुए निधन हो गया, लक्ष्मी प्रौढ़ावस्था में ही विधवा हो गई। पति की मृत्यु के समय सब बच्चे नाबालिग थे। गांव और समाज के पंचों ने लक्ष्मी से कहां कि आपके पति गांव एवं समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे।आपको उनके पीछे उनकी प्रतिष्ठा के अनुसार न्यात (मृत्यु भोज) करना चाहिए जिससे उनकी प्रतिष्ठा में वृद्धि होगी और उनकी आत्मा को सद्गति मिलेगी। लेकिन लक्ष्मी के घर की हालत खराब थी कमाने वाला कोई नहीं था। जो गहने थे वो सब पति के इलाज में बिक चुके थे। इसलिए लक्ष्मी इसके लिए तैयार नहीं हुई ।

गांव में रूपयों का लेन-देन करने वालों साहुकारों और पंचों ने समझाया कि विधवा के कपड़े पहनने से तो जमीन बेचकर न्यात करके सुहागन बनना अच्छा है । इससे मरने के बाद भी भल जी की प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि होगी उनका यश फैलेगा और उनकी आत्मा को सद्गति मिलेगी । लेकिन स्वाभिमानी लक्ष्मी ने बच्चों के भविष्य के बारे में सोच विचार कर ऐसा करना उचित नहीं समझा। लक्ष्मी जानती है कि मरने के पीछे कितना भी दिखावा क्यों न करें मरने वाले को कुछ नहीं मिलता है । इसलिए उसने समाज के पंचों की बात पर साहुकारों से कर्ज लेने की अपेक्षा बाहरवें पर गांव और रिस्तेदारो को बुलाकर साधारण खाना दाल बांटा खिलाकर पति का क्रिया-कर्म करवाया ।

समाज की प्रथा के अनुसार लक्ष्मी को विधवा की प्रतीक हाथों में सफेद चूड़ियां पहनाकर कत्थई कलर का ओरणा ओड़ाया गया । दाल बांटा की जगह गांव और समाज को न्यात करके मृत्यु भोज मिठाईयां खिलाई जाती तो लक्ष्मी उसी समय सुहागन हो जाती, उसके हाथों में सफेद की जगह लाल रंग की चूड़ियां और कत्थई ओरणा की जगह सिर पर चुनड़ी शोभायमान होती। इसे हिन्दू समाज की एक कुरीति कहे या मृत्यु-भोज की अंध परम्परा जिसमें न्यात करके समाज को पांच पकवान खिलाओ ओर आजन्म सुहागन का टिकट पाओ। समाज में यह प्रथा कहां से आई ? जबकि शास्त्रों में कहीं पर भी इस प्रकार की प्रथा का उल्लेख नहीं है । फिर भी हमारा हिन्दू समाज अज्ञान के कारण इस प्रथा को ढो रहा है।

उन दिनों समाज की प्रथा अनुसार पति की मृत्यु के बाद पत्नी को एक माह तक घर में एकान्त मे बैठना पड़ता था। जिसमें वह विधवा एक माह घर के बाहर पांव नहीं रख सकती थी। लक्ष्मी भी पति की मृत्यु के बाद घर में कैद होकर रह गई। बच्चे नाबालिग थे खेत में फसलें पक्की हुई खड़ी थी लेकिन समाज और गांव वालो को इससे कोई सरोकार नहीं था । बस समाज की प्रथा का निर्वहन होना चाहिए। हालांकि लक्ष्मी इस प्रथा की विरोधी थी फिर भी उसने इस प्रथा का पालन कर समाज की मर्यादा बनाए रखी। जबकि आजकल पति की मृत्यु के बाद उसकी विधवा 12 दिन तक ही घर में रहती है उसमें भी अगर वह बीमार हो जावे तो अस्पताल दिखाने भी जाती है।

लक्ष्मीदेवी के तीन पुत्र थे कन्हैयालाल, घेवरचन्द और सोहनलाल। बड़ा पुत्र कन्हैंयालाल उसके जीवन काल में ही सन् 2006 मे स्वर्गवासी हो गया, अब दो पुत्र घेवरचन्द, सोहनलाल और चार पोत्रो राजेश, रमेश, राहुल और पीयूष का परिवार है। जैसा की हम सभी जगह देखते हैं उसी प्रकार दोनो पुत्रो की भाग्य की रेखाएं अलग-अलग है। बड़ा पुत्र घेवरचन्द दिव्यांग "श्रवण बधीर" और स्वाभिमानी है, आर्य समाजी विचारधारा का सामाजिक कुरीतियों का विरोधी है। परिश्रम करके अपनी रोजी रोटी कमाता है और मां की सेवा करके मस्त रहता। दुसरा छोटा पुत्र सोहनलाल बेंगलूर में व्यवसाय रत है । वह अपने बड़े भाई के विपरित सामाजिक कुरीतियां और दिखावे का समर्थक है। उसके पास पैसा है, लेकिन समय का अभाव है। इसलिए मां की सेवा के लिए फुर्सत नहीं है । वह औपचारिक दिखावे के लिए बड़े भाई से बात करता है, लेकिन काम अपने मन से ही सोचकर करता है। उसके लिए परिवार हित में भी बड़े भाई की आज्ञा माननी जरूरी नहीं है।

लक्ष्मीदेवी आजन्म गौ पालन और उसकी सेवा करती रही साथ ही व्यसन रहित जीवन व्यतीत करने के कारण 100 वर्ष तक स्वस्थ रही। दिन गुजरते गये 102 वर्ष के बाद वृद्धावस्था और उम्र की अधिकता से शरीर कमजोर हो गया। चलना फिरना कठिन हो गया तो एक दिन लक्ष्मीदेवी ने बिस्तर पकड़ दिया । पहले दो तीन माह हाथ पकड़ कर धीरे धीरे शौचालय लेकर जाना पड़ता। कुछ दिन बाद चलना फिरना कठिन हो गया तो अन्दर ही मल-मूत्र करने लगी । बड़ा पुत्र घेवरचन्द और पोत्री प्रेक्षा दिन में दो बार उसके कपड़े उतारकर दुसरे कपड़े पहनाते बिस्तर परिवर्तन करते। दोनों समय पास बैठकर भोजन करवाते जिससे मां खुश होकर आर्शीवाद देती जीवता रो। मां की खुशी देखकर पुत्र को आत्म संतुष्टि मिलती। घेवरचन्द कहता "जब मैं मां के कपड़े उतारता और स्नान करवाकर दुसरे कपड़े पहनाता, और मां के कपड़े तथा बिस्तर धोता तो मुझे अपना बचपना याद आता" और मां की सेवा कर खुशी अनुभव करते हुए परमात्मा को धन्यवाद देता।

लक्ष्मीदेवी की वृद्धावस्था और अन्तिम समय का हाल जानकर अखिल भारतीय जांगिड़ ब्राह्मण महासभा जिला अध्यक्ष ओमप्रकाश जांगिड़ भी अपनी कार्यकारिणी के साथ मिलने पहुंचे। लक्ष्मीदेवी का समाज की और से श्रीफल माल्यार्पण और शाल ओढ़ाकर सम्मान किया गया लक्ष्मीदेवी ने सब को आर्शीवाद दिया जीवता रो। आर्य समाज के प्रधान जी मंत्री जी एवं आर्य वीर दल के सदस्य भी ग्रुप मे मिलने और आर्शीवाद लेने के लिए आये सबने लक्ष्मीदेवी का सम्मान कर भजन सुनाकर ज्ञान चर्चा की और आर्शीवाद लिया। जिसका समाचार राजस्थान पत्रिका और भास्कर जैसे राष्ट्रीय अखबारों में भी आया। बैंगलोर से लक्ष्मीदेवी की छोटी पुत्री मनोरमा पावणा हंसराज जी, पाली से बड़ी पुत्री जमना, भतीजी पतियां देवी और दोहीतीया पावणा, दोहिता मनीष और उसकी बहु भी सब मिलने आये। गांव से पोता रमेश और उसकी बहु भी मिलने आते रहे । एक दिन भाभी भी मिलने आये लक्ष्मी की दैराणी मेरी चाची भी मिलने आई। सब नाते रिश्तेदार मिलने आये। लेकिन बैंगलोर से पुत्र सोहनलाल और गोधरा से पौत्र राजेश अन्तिम समय तक मिलने नहीं आये।

एक दिन केरला से हरीश सिरवी पाली से धनराज विजयराज आर्य आदि मिलने आये, बात ही बात में लक्ष्मीदेवी ने कहां की मृतक भोज की जगह जीवित गंगा प्रसादी करनी चाहिए। जिससे घर में आने वाली बहन बेटियों और रिश्तेदारों को मैं अपने हाथों कपड़े व रूपये देकर आर्शीवाद दे सकूं। मरने के बाद कोई कितना ही करें मरने वाले को कोई फल नहीं मिलता है। इसलिए जीवित गंगा प्रसादी करना ही उचित है। इसलिए लक्ष्मी ने 25 ओरणा और 25 ब्लाऊज़ मंगवाकर रखें जो भी बहन बेटी रिश्तेदार की औरतें और गांव की औरतें मिलने के लिए आती लक्ष्मी अपने हाथ से ओरणा और ब्लाऊज देकर आर्शीवाद देती खुश रहो। मां लक्ष्मीदेवी के समाज उपयोगी विचार जानकर मैने वाट्सअप पर छोटे भाई सोहनलाल को लिखा की- सोहन.... मां जीवित गंगा प्रसादी का बोल रही है मैं तो तैयार हूं आपका क्या विचार है ? बैंगलोर से जबाब आया की आप तैयारी करो.......। जबकि उस समय मां अन्दर ही मल मूत्र करती थी। मै उसकी सेवा में था फिर अकेला तैयारी कैसे करता ? सोहन की और से पाली आकर कोई सहयोग नहीं करने के कारण मां की इच्छा के बावजूद उसकी जीवित गंगा प्रसादी नहीं करवा सका।

मृत्योर्मुक्षीयमाऽमृतात् हे! परमात्मा मुझे मृत्यु के बंधन से मुक्त कर अमृत के बंधन में बांध दो । इस संस्कार में निरोगी काया रखकर 100 वर्ष तक सुख पूर्वक ज़ीने वाला अमृतत्व का अधिकारी बनता है। दिर्घायु प्राप्त लक्ष्मीदेवी इसी अमृतत्व की अधिकारीणी थी। उसने मृत्यु को जीत लिया था इसलिए वह मृत्यु से बिल्कुल नहीं डरी। उसे ज्ञात हो गया था की यह जर्जर शरीर छोड़ने का समय आ गया है। इसलिए उसने पहले ही घर वालों को तैयारी करने के आदेश दिए।

अन्तिम समय में मां ने भोजन की मात्रा कम कर दी पहले चार रोटी थी अब दो रोटी फिर एक रोटी खाने लगी उसके बाद आधी रोटी और उसके बाद वह भी बंद तब हमने खिचड़ी देनी आरम्भ की वह भी पहले चार चम्मच उसके बाद दो चम्मच इस अवस्था में मां के सब अंग सिकुड़ने लगे, दृष्टि क्षीण हो गई, श्रवणशक्ति कमजोर हो गई, शरीर जीर्ण हो गया, इन्द्रियों ने काम करना बंद कर दिया, जैसे कोई योगी समाधिस्थ हो। उसी प्रकार लक्ष्मीदेवी ने सांसारिक रिस्तेदारो और परिवारिक सदस्यों से सम्बंध छोड़कर परमात्मा की चरण ली। अब सिर्फ अपनी बहु सुमित्रा से ही बात करती। कोई मिलने आता तो उसकी बहु सुमित्रा बोलकर मां को कहती तब मां हाथ जोड़कर आने वालों का अभिनन्दन करती । कभी अपनी बहु को पूछती आज कौन सी तिथि है ? कहती घर पर कांची की कटोरी और पक्षियों के लिए चुंगा लाकर रख दें। कुत्तों का लाडू भी लाकर रख दें। मैं अपने हाथ से खिलाऊंगी। मैंने आज्ञा का पालन कर 5 किलो मक्की, 5 किलो बाजरी, 5 किलो ज्वार और 5 किलो गेहूं मंगवाये। मां खुश हुई। मुझे भी अनुभव होने लगा की मां का अन्तिम समय आ गया है। मैंने नौकरी पर जाना बंद कर दिया। सोहन को विडियो काल से मां की अवस्था बताकर आने का अनुरोध किया लेकिन कोई जवाब नहीं दिया। मैं नौकरी छोड़कर हर समय मां के पास बैठा रहता। दिन भर लोगों का आना जाना रहता, कभी गांव से तो कभी कोई रिस्तेदार आता। सबको पहचान कर लक्ष्मी हाथ जोड़कर नमस्कार करती। ऐसी अवस्था 15-20 दिन तक रही। मां की अन्तिम अवस्था देखकर मैने मृत्यु का साक्षात रूप देखा । उसे देखकर सोचता एक दिन हमारा भी यही हालत होगा। धन सम्पत्ति परिवार मोह माया सब छोड़नी पड़ेगी। क्यों कि एक दिन सबकी मृत्यु निश्चित है ।
लगातार...........

आगे की घटनाएं "मृत्यु भोज एवं नशावृत्ति पर लेख (2) में पढ़ें।

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