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मृत्यु भोज एवं नशावृत्ति पर लेख।

मृत्यु भोज एवं नशावृत्ति पर लेख।

लेखक: घेवरचन्द आर्य पाली
सभ्य समाज में पीड़ा देने वाली एक सामाजिक कुरीति है मृत्यु भोज। जानवर भी अपने किसी साथी के मरने पर वियोग प्रगट करते हैं, खाना नहीं खाते। परन्तु आजकल के पढ़ें लिखे और सभ्य समाज में किसी के मरने पर संगे सम्बंधी भोज खाते हैं, मिठाईयां खाते हैं। अगर घर में खुशी का अवसर हो तो मिठाईयां खाना समझ में आता है, अच्छा लगता है। लेकिन किसी के मरने पर मिठाईयां परोसी जायें, खाई जायें, यह एक सामाजिक वीभत्स कुरीति है।

जिस परिवार का कोई प्रियजन मर जाता है तो परिजन के बिछड़ने के साथ मृतक भोज का दर्द जुड़ जाता है।इसका मूल कारण अगर ऐसा नहीं करेंगे तो हमारी समाज और गांव में इज्जत नहीं बचेगी। इसी इज्जत के खातिर यह कुरीति हिन्दू समाज में कैंसर की तरह फेल गई है। सोचनें की बात है क्या कोई व्यक्ति समाज में केवल मृतक भोज करके ही इज्जत प्राप्त कर सकता है?

मृत्यु भोज के साथ नशावृत्ति का प्रचलन भी समाज के शारीरिक और आर्थिक दोनों रूपों से घातक है। यह समझते हुए भी आजकल हर समाज में नशा करना कराना अनिवार्य बना हुआ है। जहां भी मृत्यु होती है उसके घर 12 दिन तक बीड़ी सिगरेट जर्दा अफीम चाय का दौर चलता है । हर आने वाले अतिथि के लिए बीडी सिगरेट चाय अफिम की मनुहार अवश्य समझी जाती है। इन सब नशीली वस्तुओं के अभाव में शोक सभा बैठक असफल समझी जाती है।

जिस सभा में इन सब नशीले पदार्थों का जमकर प्रयोग होता है वहीं सभा की बैठक सफल समझी जाती है। ऐसी बैठक से परिवार का रूतबा समझा जाता है । उसकी समाज में मान-प्रतिष्ठा समझी जाती है । जहां भी मृतक-भोज हो वहां पर यह सब अनिवार्य समझा जाता है। मृतक-भोज और नशावृत्ति गैर कानूनी होने के बावजूद भी इसमें मंत्री, विधायक, पार्षद, सरपंच, ग्राम सेवक, पटवारी, पुलिस, राजनेता सब सम्मिलित होते हैं। लेकिन कोई भी इसका खुलकर विरोध नहीं करते।

प्राय देखा जाता है कि जो लोग जीते जी अपने माता-पिता की सेवा नहीं करते, यहां तक कि बोलते भी नहीं है, वहीं लोग मरने के बाद मृत्यु भोज का दिखावा कुछ ज्यादा ही करते हैं। इज्जत के नाम पर गांव और समाज के हट्टे कट्टे लोगों को भोजन करवाने से मृतक की आत्मा को दुःख के अलावा क्या मिलेगा? जो माता-पिता अन्तिम समय मे अपने पुत्र या पौत्र के हाथ से पानी पीने को तरसते रहे। उनके ही पुत्र पौत्र बाहरवें पर नंगे पांव इधर-उधर दौड़कर मृत्यु भोज की व्यवस्था करते हैं। घर में इस तरह की दावत उड़ेगी तो मृतक दिवंगत की आत्मा को कितना दुःख होगा? इस पर किसी को विचार करने की फुर्सत नहीं है।

मृत्यु भोज की सामाजिक कुरिती उनके लिए गले की हड्डी बन जाती है जो आर्थिक दृष्टि से कमजोर है। मान लो एक मां के दो पुत्र हैं जिसमें दोनों की भाग्य रेखा अलग अलग है। एक सम्पन्न है तो एक आर्थिक दृष्टि से अत्यंत कमजोर मुश्किल से परिवार का पेट ही नहीं भर सकता। जब मां की मृत्यु होती है तो सम्पन्न भाई आर्थिक दृष्टि से कमजोर अपने भाई पर मृतक भोज में हिस्सेदार बनने का दबाव बनाता है। समाज के पंच एवं परिवार के लोग भी सम्पन्न भाई का पक्ष लेते हैं। ऐसे में न चाहते हुए भी विवश होकर आर्थिक दृष्टि से कमजोर भाई हिस्सेदार बन जाता है। परिवार और समाज को उस भाई की आर्थिक दशा दिखाई नहीं देती। या फिर ये लोग मृत्यु भोज के बहाने उसकी उपेक्षा कर देते है। सम्पन्न भाई के पास धन की कमी नहीं होती इसलिए वो दिखावे के लिए पानी की तरह पैसा खर्च करता हैं। जब समाज और गांव वाले खा पीकर चले जाते हैं तो वह सम्पन्न भाई सारे खर्च का हिसाब जोड़कर आर्थिक दृष्टि से कमजोर अपने भाई के आगे रखकर हिस्सा मांगता हैं। जिसको देखकर मां की मृत्यु उसके और उसके परिवार के लिए जीवन पर्यन्त दुखदाई बन जाती है। जो भाई दिखावे के नाम पर गांव और समाज वालों को लाखों रूपये खर्च कर मृत्यु भोज करवाता है, वह आर्थिक दृष्टि से कमजोर अपने भाई की सहायता नहीं करता। इससे दोनों भाईयो के परिवार का स्नेह खंडित होता है।

मृत्यु-भोज किसे कहां जाता है, जब किसी की मृत्यु होती है तो उसके पिछे बाहरवें के दिन बड़े भोज का आयोजन कर उसमें पुरे समाज और गांव को आमंत्रित कर भोजन करवाया जाता है। जिसको बोलचाल की भाषा में गंगाजल, न्यात, मोसर या गंगा प्रसादी कहां जाता है। जिसमें दो समय का भोजन और 100 से अधिक संख्या तक लोगों का भोजन बनता है यही मृतक भोज कहलाता है।

अपने प्रिय के जाने का गम हर किसी को होता है, लेकिन कई तरह के शास्त्र विरूद्ध अन आवश्यक कर्म कांड आज के दौर में अप्रासंगिक हो चुके हैं। हिन्दू धर्म के प्रमुख धर्माचार्यों और धर्म गुरूओं का मानना है कि हमारे किसी भी धर्म शास्त्र या ग्रंथ में मृत्यु भोज अर्थात बड़े स्तर पर भोज करने का विधान नहीं है। अधिकांश धर्म गुरुओं का कहना है, की अब स्थितियां बदल गई हैं। अधिकांश लोगों ने गंगा प्रसादी का भोजन नहीं करने का संकल्प लें रखा है । ऐसे लोग दुसरो को भी मृत्यु भोज नहीं करने, कराने की सलाह देते देखें जा सकते हैं।

सनातन हिन्दू संस्कृति संस्कारों की संस्कृति है। भारतीय संस्कृति में वेद, रामायण, महाभारत और गीता सर्वोच्च धर्म ग्रंथ है। इन चारों में कहीं पर भी मृत्यु भोज का वर्णन नहीं है। वेदों में मनुष्य के जन्म से मृत्यु पर्यन्त 16 संस्कारों के करने कराने का विधान है। जिसमें 16 वा मनुष्य का अन्तिम संस्कार है। जिसको अंत्येष्टि कर्म भी कहते हैं। अंत्येष्टि कर्म जो शरीर के अंत का संस्कार है, जिसके आगे उस शरीर के लिए कोई भी अन्य संस्कार नहीं है।
"भस्मान्त शरीरम्"
शरीर की सता भस्म होने तक ही है।
निषेकादि श्मशानान्तो मन्त्रै: यस्योवितो विधि:। यजुर्वेद
शरीर का आरम्भ ऋतुदान और और अन्त श्मशान। यजुर्वेद के इस मंत्र प्रमाण से स्पष्ट है कि दाहकर्म और अस्थि संचयन से पृथक मृतक के लिए दुसरा कोई भी कर्म कर्तव्य नहीं है।

कुछ स्वार्थी पेटू ब्राह्मणो ने स्व स्वार्थ के लिए गरुड़ पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, भागवत पुराण आदि में व्यक्ति की सद्गति के बहाने किसी की मृत्यु के पश्चात दशगात्र, एकादशाह, द्वादशाह कर्म, मासिक, वार्षिक श्राद्ध कर्म में ब्रह्मभोज करने का उल्लेख किया है। जिससे ब्रह्म भोज के बहाने पंडित जी को 12 दिन तक फ्री में भोजन मिलता रहे। और 12 वे दिन कपड़े बर्तन बिस्तर आदि सामान भी मिल जावे। लेकिन मृत्यु भोज करने कराने का उल्लेख इन पुराणों में भी नहीं है। वैसे ये सब कर्म भी मिथ्या है क्योंकि वेदों में इन कर्मों का विधान नहीं है ।
इसलिए ये अकर्तव्य है।

वासासि जीर्णानि यथा विवाय......२२
नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति......२३
अच्छेद्योऽयमदाह्मोऽयमक्लेद्योऽशोष्य ........२४
जो व्यक्ति पिण्ड दान, भोजन, खाट दान आदि कर्म कर रहे हैं वे गीता के उपर लिखे श्लोकों के विरूद्ध कर रहे हैं। जिस प्रकार जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को त्यागकर मनुष्य नया वस्त्र धारण कर लेता है। ठीक इसी प्रकार यह आत्मा जीर्ण शीर्ण शरीर को छोड़कर तत्काल शरीर रूपी नवीन वस्त्र को ग्रहण कर लेता है। जब आत्मा ने केवल वस्त्र बदला है, वह मरा नहीं है। नश्वर शरीर को ही बदला है, उसकी व्यवस्था पूर्ववत है तो इस भोजन (पिण्ड दान) आसन, शैय्या, सवारी, आवास या जल इत्यादि से किसे तृप्त किया जाता है? यही कारण है कि योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण ने इसे अज्ञान कहा है"। गीता अध्याय 15/7 में इसी पर बल देते हुए कहते हैं कि.. आत्मा ने जिस (नवीन) शरीर को धारण किया, वहां भी तो भोग सामग्री उपलब्ध है, फिर पिण्ड दान क्यों दिया जाता है ?

महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार मृत्यु भोज खाने से व्यक्ति पर इसका प्रतिकूल असर पड़ता है।
आजकल समाजों में जो मृतक-भोज होते हैं उनका मूल कारण यही है कि करने कराने वाले मृतक भोज खाने के आदी हो गये है। इसलिए ऐसे लोग ही दुसरो को मृतक-भोज के लिए उकसाते हैं। तो लोग न चाहते हुए भी एक दुसरे की देखा देखी इस भावना से आयोजन करते हैं की मृतक-भोज नहीं करेंगे तो गांव और समाज में अच्छा नहीं लगेगा।

प्रश्न उठता है कि किसी की मृत्यु के बाद क्या-क्या कर्मकांड करना शास्त्र सम्मत है? इसका जबाब यह है कि मृतक व्यक्ति के शरीर का विधिवत अन्तिम संस्कार करके घर की शुद्धि के लिए उसी दिन हवन कर दिया जावे, जिससे मृतक की वायु बाहर निकल कर घर में शुद्ध वायु प्रवेश करें।
फिर तीसरे दिन श्मसान जाकर मृतक कि अस्थियां एकत्रित कर किसी सार्वजनिक स्थान पर दबा देवें और उसके उपर वृक्ष का रोपण कर देवे।
इसके बाद 12 वे पर बहन बेटी और रिस्तेदारो को बुलाकर रश्म पगड़ी और शोक तोड़ने की रस्म अदायगी कर देवे। जिसमें परिवार की औरतें और बहन बेटी को नया वेस या नया ओरणा ब्लाउज दिया जावे। आगंतुक परिवारिक सदस्यों और रिस्तेदारो को दाल बांटा और मिष्ठान के रूप में लापसी का भोजन करवाकर स सम्मान विदा कर दे। अगर ऐसा करेगे तो यह मृतक भोज नहीं कहलायेगा। क्यों की 12 वे पर परिवार की बहन बेटी और रिस्तेदारो का शोक व्यक्त करने आना लाजमी है। तो उनके भोजन की व्यवस्था करना अतिथि धर्म का पालन करना ही कहलायेगा।

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