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बिहार : तत्कालीन महागठबंधन सरकार के फैसले को पटना हाईकोर्ट ने नकारा

बिहार की महागठबंधन की सरकार ने जाति आधारित जनगणना के बाद आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी कर दी थी, किन्तु पटना हाईकोर्ट ने विधान मंडल द्वारा पारित प्रस्ताव को निरस्त करते हुए स्पष्ट कर दिया कि तत्कालीन सरकार का आरक्षण संबंधी लिया गया फैसला सही नहीं था।

दरअसल कुछ सियासी पार्टियां विकास का मतलब आरक्षण और आरक्षण का मतलब संविधान ही प्रचारित करती हैं। यह वास्तविकता है कि सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए आरक्षण देने का निर्णय जब संविधान निर्मात्री सभा ने लिया था, उस वक्त देश में दलितों की हालत दयनीय थी और सदियों से अछूत का जो दंश वह झेल रहे थे, उसको कम करने के लिए दस वर्षों के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। 1980 तक तो इस समय-सीमा को 10-10 वर्ष बढ़ाया गया, किन्तु बाद में इसे हमेशा के लिए सुनिश्चित कर दिया गया। संविधान निर्मात्री सभा में आरक्षण के प्रस्ताव पर डॉ. भीम राव अंबेडकर ने दो टूक शब्दों में कहा था कि, 'कोई समाज आरक्षण की बैसाखी पर हमेशा के लिए निर्भर नहीं रह सकता।' उन्होंने कहा था कि, 'अनुसूचित जाति और जनजाति यदि खुद आत्मनिर्भर होना चाहते हैं तो उन्हें दस वर्षों के बाद इस बैसाखी को खुद ही त्याग देना होगा', लेकिन वोटों के लालची हमारे राजनेताओं ने आरक्षण को हमेशा के लिए सुनिश्चित ही नहीं किया, बल्कि पिछड़ों को आरक्षण देने की लिए मंडल आयोग का गठन किया और 27 उन्हें भी आरक्षण देने का सिफारिश की। देश में भयंकर आंदोलन हुआ। मामला सुप्रीम कोर्ट में गया और संविधान पीठ ने अपने फैसले में दो बातें निर्धारित कर दीं। पहली यह कि अब सभी वर्गों का आरक्षण कोटा 50 फीसदी तक ही होगा, शेष 50 फीसदी सीटें मेरिट के आधार पर भरी जाएंगी। मतलब कि सामाजिक न्याय का नारा लगाने वालों को स्पष्ट संदेश दिया कि सामाजिक उत्थान के साथ-साथ चयन में प्रतिभा का भी महत्व होना चाहिए।

इस बात में कोईं संदेह नहीं कि आरक्षण के बल पर सामाजिक उत्थान तो हुआ है, किन्तु यह भी सही है कि आरक्षण का लाभ वही परिवार ले पा रहे हैं, जो सक्षम हैं। यानि जिसकी दो पीढ़ियां पहले ही इसका लाभ ले चुकी हैं। यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कही कि अन्य पिछड़े वर्ग में क्रीमी लेयर को पहचाना जाए और उन्हें इसका लाभ नहीं मिलना चाहिए। मतलब यह कि सुप्रीम कोर्ट को भी इस बात का एहसास हो चुका था कि जिस तरह अनुसूचित जाति और जनजाति में आईएएस के बेटे और नाती पोते ही आईएएस बन रहे हैं, उसी तरह अन्य पिछड़े वर्ग में नहीं होना चाहिए।

वास्तविकता तो यह है कि जब जाति के आधार पर सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में प्रवेश की सुविधाओं की सीमा को जब 50 फीसदी से बढ़ाने का निर्णय नीतीश कुमार सरकार ने लिया तो विधानसभा में तत्कालीन विपक्षी बेंच पर बैठे जीतन राम मांझी ने मुख्यमंत्री से एक सवाल पूछा था कि क्या आरक्षण की सीमा बढ़ाने से आरक्षित समाज को समुचित लाभ होगा? उन्होंने सरकार से पूछा था कि जिन जातियों को आरक्षण मिला है, उन्हें भी स्कूलों-कॉलेजों में प्रवेश नहीं मिलता और वे सरकारी नौकरियां भी समुचित तरीके से हासिल नहीं कर पा रहे हैं। आरक्षण का लाभ कैसे समाज के जरूरतमंद वर्ग को मिले, इस पर तो कोई सिस्टम विकसित किया ही नहीं गया।

बहरहाल सुप्रीम कोर्ट ने जो 50 फीसदी की सीमा निर्धारित की उसका सभी को सम्मान करना चाहिए और वोटों के लिए भ्रम नहीं फैलाना चाहिए तथा जो आरक्षित समाज है उसमें जागरूकता पैदा करने की जरूरत है कि वह पढ़े और आरक्षण का लाभ लेने के लिए सक्षम बन सके अन्यथा सामाजिक न्याय की अवधारणा सामाजिक अन्याय में बदल जाएगी। बिहार सरकार को हाईकोर्ट के फैसले का सम्मान करना चाहिए और अब सुप्रीम कोर्ट जाने का विचार छोड़ देना चाहिए, लेकिन लगता है कि ऐसा होगा नहीं, बिहार सरकार सुप्रीम कोर्ट जाएगी और सबसे पहले पटना हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाने की मांग करेगी, क्योंकि आरक्षण सियासी हितों का सबसे बड़ा संवेदनशील मुद्दा बन चुका है।


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