18वीं लोकसभा की शक्ल बहुत टेढ़ी है।
18वीं लोकसभा की शक्ल बहुत टेढ़ी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दावा एनडीए का 400 पार पाने का था लेकिन लगभग 290 से 294 पर ही पहुंचती दिखी भाजपा के लिए हताशा भरी बात यह है कि वह सरकार में रहने के लिए 272 सीटों से भी कहीं 30-32 से कम सीटों पर सिमट कर रह गई हालांकि 2014 व 2019 से मजबूत होती जा रही भाजपा के लिए सबसे बड़ा धक्का उसे यूपी से है, जिसकी पिक्चर पूरे देश में आदर्श प्रयोग भूमि के रूप में घूम घूम के दिखाई गई। वर्ष 2014 में बेशक मोदी ने पहली बार देश की सत्ता संभाल के एक माहौल बनाना शुरू किया जिसे बाद में, 2017 में योगी आदित्यनाथ ने यूपी संभाल कर उसको पूरकता देने का कार्य किया। यही कारण था कि 2019 में लोकसभा चुनाव में योगी ने पूरे देश में अनथक परिश्रम किया और तब भी यूपी की 80 सीटों में से 62 सीटें झटक लाने में वह कामयाब रहे लेकिन इस बार भाजपा की यूपी में हालत इतनी खराब हो जाएगी और साढ़े सात साल से विपक्ष का संघर्ष हीन सुख ले रहे अखिलेश यादव की सपा इतनी ज्यादा सफल हो जाएगी, यह उस बात का सूचक है कि भाजपा के विकासवाद की प्रत्यक्ष दिखती प्रगति के बजाय परिवारवाद की पोषक कांग्रेस व सपा के पक्ष में जनता जा खड़ी हुई जो पहले खुद ऊब कर भाजपा को जिताकर मजबूत तरीके से सत्ता में लाई थी। वैसे स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में भाजपा की यह जो दुर्गति हुई है, उसमें कारक क्या-क्या है? वह भी तब, जब इसी यूपी में बुलडोजर बाबा के लॉ एंड ऑर्डर की शानदार सेवा की बात पूरी दुनिया में बताई जा रही थी। इसी उत्तर प्रदेश में अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण कर के एक ऐसा मानक स्थापित कर दिया गया कि लगता था कि अब राम जी बदले में इनको ही स्थाई रूप से लेकर आते रहेंगे लेकिन सब धराशाई हो गया। अयोध्या में भाजपा का हारना, यह उसे सिद्धांत की हार है जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विहिप द्वारा खड़े किए गए आंदोलन से बनी मानसिकता और सदियों के संघर्ष के बाद मिली विजय थी। भाजपा से उसे इस जगह भुना न पाई जो इसकी प्रमुख उपलब्धि थी। ऐसे ही वाराणसी की अपनी सीट से नरेंद्र मोदी का केवल डेढ़ लाख वोट से जीतना और बगल की आजमगढ़, गाजीपुर, चंदौली आदि कई सीटें गंवा देना भी हैरत भरा है। ऐसी ही भाजपा के उन प्रत्याशियों की सीट गंवाना भी आश्चर्य प्रकट करता है जो अपने क्षेत्र में
काम धाम करते रहे। अमेठी की स्मृति ईरानी, फतेहपुर से साध्वी निरंजन ज्योति, मोहनलालगंज से कौशल किशोर, चंदौली से महेंद्र पांडेय, मुजफ्फरनगर से संजीव बालियान आदि ऐसे ही हैं। हालांकि खीरी वाले टेनी बाबू विवादों के चलते निपट गए। लेकिन थोड़ा तटस्थ होकर विश्लेषण करें तो यह आवश्यक है कि कुछ तो है जो पूरे देश में सफलता के ब्रांड एंबेसडर बनते जा रहे योगी के राज्य को इस परीक्षा कल में बहुत बड़ा धक्का मिला। वह भी तब, जब जाति व धर्म के बिना भेदभाव सरकारी भर्ती, फ्री राशन, शौचालय, आवास व सिलेंडर आदि बांटे गए। फिर भी, भाजपा के लिए दगाबाज कौन निकला? ब्राह्मण-बनियों की पार्टी के ठप्पे से अपने को अरसे पहले बाहर निकाल कर ओबीसी केंद्रित राजनीति करने के लिए सिद्धि प्राप्त करके बैठी भाजपा के अपने पिछड़े नेता आखिर अपनी जाति के वोट क्यों नहीं डलवा पाए जबकि पीडीए अर्थात पिछड़ा, दलित व अल्पसंख्यक का जुमला फेंक कर समाजवादी पार्टी 2014 व 2019 के मुकाबले 2024 में 6 गुना ज्यादा स्कोर करवा ले गई। पिछड़े अगर सपा की ओर तेजी से शिफ्ट हुए तो दलित वोट भी मायावती से हटकर सपा को चले गए और सबसे बड़ी बात अल्पसंख्यक वोटों की है जिसमें सबसे ज्यादा संख्या मुसलमान की है। उसने बहुत संयत और शांत तरीके से हर एक वोट सपा या इंडिया एलायंस के अन्य घटक दल जैसे कांग्रेस को दिया लेकिन यह बात भाजपा के रहनुमाओं को समझ क्यों नहीं आई? डरा हुआ व पीड़ित सा दिखने वाला मुस्लिम समाज ने ऐसा खेल किया जो कभी भी बीजेपी के थिंक टैंक ने सोचा न होगा। इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या होगा, जब बीच मतदान भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा कि पहले आरएसएस की जरूरत थी पर, आज भाजपा सक्षम है। यह दंभ और स्वार्थ का स्वर संस्कारहीन उस बेटे के जैसा था, जो पैसा कमाते ही मां-बाप को घर से निकालने की मानसिकता रखता हो। परिणाम क्या निकला? संघ का स्वयंसेवक निस्वार्थ भाव से भाजपा के लिए आखिर कैसे लगता भला? इधर आरएसएस के एक प्रचारक का मुसलमानों के बीच काम करने के जबरिया शौक ने भी कम बेड़ा गर्क नहीं किया। लखनऊ के नदवा कॉलेज से लेकर प्रदेश के कई स्थानों में मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्य धारा में जबरदस्ती जोड़ने के उनके दिखावटी प्रयास ने यह सब दिया। साथ ही, उन्होंने मथुरा मूल के बड़े प्रचारक और गोरखपुर के एक योगी विरोधी मुस्लिम परिवार में अपनी भतीजी का निकाह करवा कर सुर्खियों में आए प्रचारक को भी अपने ड्रामे में शामिल किया। मतलब हिंदुत्व की रक्षा के लिए जिस संघ का निर्माण हुआ, उसके तीन बड़े प्रचारक इस यूपी में मुस्लिम कल्याण में लग गए। संघ का सामान्य कार्यकर्ता इससे भ्रमित भी हुआ। उसे लगा कि शायद हिंदू राष्ट्र ऐसे ही बनेगा और वह अकर्मण्य होता चला गया। इसी तरह, सबसे खराब बात भाजपा सांसदों के व्यवहार में यह थी कि जनता से सरोकार वह कम करते जा रहे थे क्योंकि उन्हें लगता रहा कि चुनाव के समय मोदी योगी अपनी मेहनत से उनकी सीट भी निकलवा लेंगे। उनका यह अति दंभ और अति आत्मविश्वास यूं ही नहीं था क्योंकि पार्टी ने उत्तर प्रदेश में जिस तरह से टिकट बांटे, वह भी कई प्रमुख लोगों को कटघरे में खड़ा करता दिखता है। कहने को टिकट बीजेपी की चुनाव-संसदीय समिति ने तय किए लेकिन सबको मालूम है कि उत्तर प्रदेश के मामले में कुछ एक सीटों को छोड़कर योगी की चली ही नहीं। यह अवश्य है कि योगी सरकार में सरकारी अधिकारी मस्त हैं, सरकारी कर्मचारी त्रस्त हैं और भाजपा का कार्यकर्ता अपने पदाधिकारी के सामने पस्त है लेकिन योगी आज भी अभिमन्यु की तरह डटे हैं। बिना किसी भेदभाव के जितना परिश्रम वह करते हैं और अगर तब भी अनुकूल परिणाम नहीं आया तो ऐसा कहने वालों को पार्टी के दूसरे लोगों की भूमिका और पहलुओं पर भी विचार करना होगा। हालांकि आज एक पत्रकार मित्र का यह कहना कि दृष्टि यह भी रखनी चाहिए, कि क्या यह योगी को निपटाने की भाजपा की ही तो कोई साजिश नहीं?
परंतु बिना किसी ठोस तथ्य के लिखना अनैतिक है और वैसे भी लोकतंत्र में जनता को अपने जैसा ही शासन मिलता है क्योंकि वह उसे अपने मन से चुनती है। उत्तर प्रदेश के संदर्भ में यह कहना अतिश्योक्ति नहीं है कि योगी अजेय हैं और इस चुनाव में यूपी बीजेपी की दुर्गति के बाद हो सकता है कि कोई कहे "गढ़ आल्हा पर सिंह गेला" लेकिन तब भी इतनी जल्दी निराश होने के बजाय योगी को स्वतंत्रता से काम करने देने की आवश्यकता है। विश्वास रखिए प्रधानमंत्री के रूप में यदि तीसरी बार मोदी शपथ लेंगे तो कोई बड़ी बात नहीं कि योगी भी तीसरी बार यूपी के मुख्यमंत्री पद की शपथ लें लेकिन अभी योगी को आज 5 जून को उनके जन्मदिन की बधाई देने का समय है। यशस्वी और गर्वित जीवन जीने वाले उस योगी आदित्यनाथ को बधाई, जिसने धर्म व राष्ट्र के लिए सन्यासी जीवन की साधना का मार्ग चुना।
इति।।