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निर्वाचन आयोग का निराशाजनक रवैया

भारतीय राजनीति का यह सर्वाधिक दुखद पहलू है कि जिस व्यक्ति पर सार्वजनिक जीवन में अनुशासन, नैतिकता एवं मूल्यों के संरक्षण की प्रमुख जिम्मेदारी है, वे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही उनकी धज्जियां उड़ा रहे हैं। भविष्य में जब भी इस कालखंड का उल्लेख होगा तब एक ऐसे निर्वाचन आयोग की भी बात होगी जिसमें कहा जायेगा कि देश की जनता ने अब तक इससे अधिक कमजोर व लाचार निर्वाचन आयोग नहीं देखा था। राजीव कुमार के नेतृत्व में कार्यरत केन्द्रीय निर्वाचन आयोग ने जो पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाया है, उसने राष्ट्र निर्माताओं के उन सपनों को बिखेर दिया है जिन्होंने स्वतंत्र संवैधानिक संस्थाएं बनाई थीं ताकि सरकारों की मनमानी न चले और लोगों के अधिकारों की रक्षा हो।

मौजूदा निर्वाचन आयोग को देखते हुए कोई इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकता कि ऐसा भी समय देश ने देखा है कि (कुछ अपवादों को छोड़कर) कई मजबूत प्रधानमंत्रियों एवं उनकी सरकारों को निर्वाचन आयोग सिर नहीं उठाने देते थे। सारी शासकीय मशीनरी को अपने अधीन रखते थे और मातहतों को निष्पक्षता, स्वतंत्रता तथा दबंगई के साथ काम करने की प्रेरणा देते थे। इस मामले में वह किस्सा ज़रूर सामने रखा जाना चाहिये जब मुम्बई के विले पार्ले विधानसभा के उपचुनाव में शिवसेना के उम्मीदवार डॉ. रमेश प्रभु ने कांग्रेस के प्रभाकर कुंटे को हरा दिया था। बात 1987 की है। चुनाव हारने पर कुंटे ने बाम्बे हाईकोर्ट में जनप्रतिनिधित्व कानून के अंतर्गत याचिका लगाई कि डॉ. प्रभु की सभाओं में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे ने धर्म के नाम पर वोट मांगा था। यह सच भी था। ठाकरे अपनी सभाओं में कहते थे कि ‘शिवसेना हिन्दुओं की रक्षा के लिये चुनावी मैदान में है और वह मुस्लिम वोटों की चिंता नहीं करती।’ हाईकोर्ट ने आरोपों को सही ठहराते हुए प्रभु का चुनाव रद्द कर दिया। डॉ. प्रभु ने सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी लगाई पर शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय के आरोपों को सही मानते हुए 1990 में दिये अपने फैसले में सज़ा बरकरार रखी। कुंटे को निर्वाचित घोषित किया गया।

चुनाव आयोग के समक्ष यह सवाल आया कि डॉ. प्रभु को तो उनके किये की सज़ा मिल गई परन्तु ठाकरे को क्या सज़ा मिले क्योंकि वे किसी सदन के सदस्य या पद पर तो थे नहीं। इसी भारतीय निर्वाचन आयोग ने ठाकरे को 6 वर्षों के लिये मताधिकार से वंचित कर दिया। ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ कहलाने वाले ठाकरे, जिनकी मुम्बई ही नहीं पूरे महाराष्ट्र में तूती बोलती थी, पूरे छह वर्ष तक अपनी ऊंगली पर मतदान के बाद लगने वाली स्याही को देखने के लिये तरस गये। अगर कोई सोचे कि ऐसा कड़ा निर्णय टीएन शेषन ने लिया होगा, तो ऐसा नहीं है। उनका पदार्पण तो बाद में हुआ और उन्होंने अपनी और भी दबंग अधिकारी के रूप में छवि बनाई जिनका लोकप्रिय तकिया कलाम था- ‘मैं नाश्ते में राजनीतिज्ञों को खाता हूं।’

बहरहाल, भारतीय लोकतंत्र को जिन लोगों ने सबसे ज़्याद कमज़ोर किया है और कई अन्य संस्थाओं के साथ सरकार के सामने घुटने टेके हैं, उनमें निर्वाचन आयुक्त प्रमुख हैं। वे देश की प्रशासकीय प्रणाली को ध्वस्त करने में उतने ही जिम्मेदार हैं जितनी कि केन्द्रीय जांच एजेंसिया या कुछ और संस्थाएं। निर्वाचन आयोग पर जिम्मेदारी सर्वाधिक होती है क्योंकि यह लोकतांत्रिक प्रणाली की मूलभूत प्रक्रिया को संचालित करता है। मताधिकार तो प्रजातांत्रिक व्यवस्था का आधार है और उसे ही आयोग ने ध्वस्त कर दिया। मौजूदा आयोग पर इतने आरोप लगे हैं कि उसके सामने सबसे बड़ा संकट उसकी विश्वसनीयता का है। भाजपा के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की बात सुनने के लिये आयोग मानो तैयार ही नहीं होता, सुनवाई या फ़ैसले की कौन कहे?

आयोग पर आरोप लगता रहा है कि वह विधानसभा हो या लोकसभा के चुनाव, उसके कार्यक्रम पीएम मोदी व केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह आदि के प्रचार अभियानों की सहूलियतों के अनुसार बनते हैं। फिर ईवीएम को लेकर विपक्षी दल लगातार उनसे मिलने की मांग करता रहा परन्तु आयोग के पास इसके लिये वक़्त ही न निकला। पिछले कुछ समय से देखा गया है कि प्रचार सम्बन्धी शिकायतों को लेकर वह दोहरा रवैया अपनाता रहा है। भाजपा के ख़िलाफ़ की गई शिकायतों पर वह कोई कार्रवाई नहीं करता जबकि विरोधी दलों को या तो तुरंत नोटिस जारी करता है या उनके नेताओं के प्रचार पर कुछ या काफी समय तक तुरन्त रोक लगा देता है। चुनावी आचार संहिता लागू होने के बावजूद जिस प्रकार से विपक्षी दलों के नेताओं को जांच एजेंसियों के जरिये गिरफ्तार किया जा रहा है, उससे साफ़ संदेश गया है कि इसके पीछे भाजपा का उद्देश्य उन्हें प्रचार से रोकना है। आयोग इसे लेकर भी खामोश है।

हालिया चुनाव में तो नरेंद्र मोदी व भाजपा ने सारी हदें ही पार कर दी हैं लेकिन चुनाव आयोग ने गहरी चुप्पी साध रखी है। श्री मोदी और उनकी पार्टी का जहां एक ओर साम्प्रदायिक एजेंडा जमकर बोल रहा है वहीं लगातार झूठ बोलकर कांग्रेस व विपक्ष को बदनाम किया जा रहा है, जो कानूनों का सरासर उल्लंघन है। जनप्रतिनिधित्व कानून ही नहीं, सामान्य अपराध संहिता व न्याय प्रक्रिया के भी वह ख़िलाफ़ है। कांग्रेस के घोषणापत्र को नरेंद्र मोदी ने ‘मुस्लिम लीग से प्रभावित’ बताया जबकि उसमें कहीं इसका ज़िक्र तक नहीं। ऐसे ही, पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के भाषण को यह कहकर पेश किया कि ‘कांग्रेस मंगलसूत्र तक लेकर मुस्लिमों में बांट देगी।’ निर्वाचन आयोग को शायद अहसास नहीं है कि उसकी ऐसी भीरूता लोकतंत्र ही नहीं, देश के साम्प्रदायिक सौहार्द्र को तक मिटा देगी। इसके खिलाफ़ आवाज उठनी चाहिये।

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